Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ३३ :
सम्यग्द्रष्टि जीवनां चिह्नो
चारित्रप्राभृतनी गाथा ११–१२ मां आचार्यदेवे
सम्यग्द्रष्टिजीवनां चिह्नोनुं सरस वर्णन कर्युं छे; तेमां सौथी
पहेलुं चिह्न वात्सल्य कह्युं छे; वात्सल्य एटले धर्मात्मा
प्रत्येनी परम प्रीति.
मोक्षमार्गनी पहेली आराधना जे सम्यग्दर्शन, ते सम्यग्दर्शननी
आराधना जेणे प्रगट करी छे एवा सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मानुं चिह्न शुं छे?
एवा प्रश्नना उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे के, जे जीव मिथ्यात्वथी रहित
थईने भगवान जिनेन्द्रदेवे कहेला सम्यक्त्वनो आराधक थयो छे–एवा
जीवनुं लक्षण प्रथम तो ‘वात्सल्य’ एटले के धर्मात्मा प्रत्ये परम प्रीति
होय. समकितीने बीजा धर्मात्माओ प्रत्ये निर्दोषभावे–सरळतापूर्वक
अत्यंत प्रेम आवे छे. पोतामां जे अपूर्व धर्म प्रगट्यो छे एवो ज धर्म
सामा जीवमां जोतां तेने वात्सल्य आवे छे के अहो! आ धर्मात्मा पण
आवा अपूर्व धर्मने आराधी रह्या छे. जो धर्मात्माने देखतां आवी
परमप्रीति न आवे तो तेने पोतामां ज एवो धर्म प्रगट्यो नथी. जे धर्मी
होय ते बीजा धर्मात्माने ओळखी ल्ये ने तेना उपर परमप्रीति आवे,
धर्मात्माने देखतां ज घणो प्रेम अने प्रमोद आवे. अहो, धन्य आ
धर्मात्मा! भगवाने कहेला मार्गने ते साधी रह्या छे. आम काळजामांथी
वात्सल्य आवे. ‘अरे, आ माराथी आगळ वधी गयो’–एम जेने
धर्मात्मा प्रत्ये ईर्षाबुद्धि आवे तेने धर्मनो प्रेम नथी. अहा, आ जीव पण
सम्यग्दर्शनादिनो आराधक छे–एम धर्मीने तो बीजा धर्मी प्रत्ये परमप्रेम
आवे छे. आवो धर्मात्मा प्रत्येनो प्रेम ते समकिती जीवनुं चिह्न छे.
जेम तरतनी प्रसूता गायने पोतानां बच्चां प्रत्ये घणी प्रीति होय छे,
तेम धर्मात्माने बीजा धर्मात्माओ प्रत्ये परम प्रीतिरूप वात्सल्य होय छे.
आचार्यदेवे धर्मात्माना लक्षणोमां पहेलुं ज आ वात्सल्य वर्णव्युं छे.
समकितीने उपरटपके नहीं पण हाडोहाड धर्मात्मानो प्रेम होय; अनुकूळता
होय त्यांसुधी प्रेम राखे, ने प्रतिकूळता लागे के धार्युं न थाय त्यां द्वेष करे,
–ए साचो प्रेम न कहेवाय. देखावनो प्रेम नहि पण मायाचार वगरनो
निर्दोष प्रेम धर्मात्मा प्रत्ये होय,