ध्रुवतत्त्वने धर्मीजीव अंतरमां देखे छे; ते ध्रुवने ध्यावे छे; तेने पर्यायमां पण शुद्धता
थई जाय छे. तेणे शुद्धात्माने उपलब्ध कर्यो. आवो आत्मा ते ध्याननुं ध्येय छे, ते
ज्ञातानुं स्वज्ञेय छे ने ते द्रष्टिनो विषय छे.
ध्रुवना ध्यानमां अतीन्द्रियआनंदनुं वेदन छे. ज्यां अतीन्द्रियआनंद नथी त्यां
ध्यान पण नथी.
तेनाथी आत्माने अभिन्नता होवाथी एकता छे, एकता होवाथी शुद्धता छे, ने
शुद्धताने लीधे ध्रुवता छे. ध्रुव होवाथी उपलब्ध करवा योग्य छे. उत्पाद–व्यय
पर्याय परथी खसीने स्वमां अंतर्मुख थईने आवा ध्रुवआत्माने पोतामां
उपलब्ध करे छे.
प्रगट्यो, तेने शुद्धउपयोगरूप ध्यान पण कहेवाय, अने तेने ज ध्येयरूप परम
पारिणामिकभाव पण कहेवाय.–एम एकार्थवाचक घणां नामोथी तेनुं वर्णन
द्रव्यसंग्रहनी ५६ मी गाथामां कर्युं छे. वस्तुस्वरूप समजीने कोई पण नामथी
तेने ओळखाय–तेमां धर्मी मुंझाता नथी. शास्त्रोमां नयोनी घणी विवक्षाओ
होय छे. ईन्द्रजाळ जेवा ते नयोमां धर्मी जीव मुंझाता नथी; निर्विकल्प
अनुभूतिमां ध्रुवज्ञायकभावने पकडतां ते बधी ईन्द्रजाळ संकेलाई जाय छे
एटले के नयपक्षना विकल्पो दूर थई जाय छे, परम चैतन्यतत्त्व ज स्फुरायमान
थाय छे. आवी अनुभूति ते ज महावीरभगवाननो मार्ग छे. महावीर–
भगवानना अढीहजारवर्षीय निर्वाणमहोत्सवना आ मंगलवर्षमां वीरमार्गनी
खूब प्रसिद्धि हो!