Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ५८ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
* ध्रुव चैतन्यतत्त्व स्वधर्मथी अभिन्न छे. परद्रव्योथी ते भिन्न छे पण
परने जाणनारी जे ज्ञानपर्याय वगेरे स्वधर्मो तेनाथी तो अभिन्न छे,–एवा
ध्रुवतत्त्वने धर्मीजीव अंतरमां देखे छे; ते ध्रुवने ध्यावे छे; तेने पर्यायमां पण शुद्धता
थई जाय छे. तेणे शुद्धात्माने उपलब्ध कर्यो. आवो आत्मा ते ध्याननुं ध्येय छे, ते
ज्ञातानुं स्वज्ञेय छे ने ते द्रष्टिनो विषय छे.
* परद्रव्यना संसर्गथी अशुद्धता छे; स्वद्रव्यमां एकाग्रताथी शुद्धता थाय छे.
–आवो स्वपरनो विभाग जिनवचन बतावे छे; ते जिनवाणी परम उपकारी छे.
ध्रुवना ध्यानमां अतीन्द्रियआनंदनुं वेदन छे. ज्यां अतीन्द्रियआनंद नथी त्यां
ध्यान पण नथी.
उत्पाद–व्यय–ध्रुवयुक्त सत् छे; तेना उत्पाद–व्ययमां ध्रुवनी प्राप्ति थाय
छे, तेमां परद्रव्यनी प्राप्ति नथी थती. ज्ञानना उत्पाद–व्यय ते स्वधर्म छे,
तेनाथी आत्माने अभिन्नता होवाथी एकता छे, एकता होवाथी शुद्धता छे, ने
शुद्धताने लीधे ध्रुवता छे. ध्रुव होवाथी उपलब्ध करवा योग्य छे. उत्पाद–व्यय
पर्याय परथी खसीने स्वमां अंतर्मुख थईने आवा ध्रुवआत्माने पोतामां
उपलब्ध करे छे.
“परथी खस, स्वमां वस.....ए ज छे समयसारनो कस.”
परथी विभक्त, अने स्वधर्मोथी अविभक्त,–एवा ध्रुव आत्माना
ध्यानथी, तेना आश्रये जे परम आनंदमय सुखना अनुभवरूप मोक्षमार्ग
प्रगट्यो, तेने शुद्धउपयोगरूप ध्यान पण कहेवाय, अने तेने ज ध्येयरूप परम
पारिणामिकभाव पण कहेवाय.–एम एकार्थवाचक घणां नामोथी तेनुं वर्णन
द्रव्यसंग्रहनी ५६ मी गाथामां कर्युं छे. वस्तुस्वरूप समजीने कोई पण नामथी
तेने ओळखाय–तेमां धर्मी मुंझाता नथी. शास्त्रोमां नयोनी घणी विवक्षाओ
होय छे. ईन्द्रजाळ जेवा ते नयोमां धर्मी जीव मुंझाता नथी; निर्विकल्प
अनुभूतिमां ध्रुवज्ञायकभावने पकडतां ते बधी ईन्द्रजाळ संकेलाई जाय छे
एटले के नयपक्षना विकल्पो दूर थई जाय छे, परम चैतन्यतत्त्व ज स्फुरायमान
थाय छे. आवी अनुभूति ते ज महावीरभगवाननो मार्ग छे. महावीर–
भगवानना अढीहजारवर्षीय निर्वाणमहोत्सवना आ मंगलवर्षमां वीरमार्गनी
खूब प्रसिद्धि हो!
–जय महावीर.