Atmadharma magazine - Ank 384
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ५७ :
लक्ष्मी–शरीर–सुख–दुःख–शत्रु–मित्रजनो ए कोई पण संयोग जीवने ध्रुवरूप नथी,
शरणरूप नथी, आश्रयरूप नथी; ऊलटुं ते तो आत्माने अशुद्धतानुं कारण छे;
आत्माथी तेनो विभाग छे.–एटले उपयोगस्वरूप पोताना आत्मा सिवाय, बीजुं
लक्ष्मी, शरीर, सुख–दुःख अथवा शत्रु–मित्र जनो अरे!
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग–आत्मक जीव छे.

आ आत्माने, उपयोगस्वरूप पोतानो आत्मा ज ध्रुव छे; ए सिवायनां
कोई परद्रव्य देह–धन सुख–दुःख के शत्रु–मित्र जनो, ते आ जीवने माटे ध्रुव नथी.
‘मित्रजनो’ मां पंचपरमेष्ठीभगवंतो पण आवी जाय; तेओ आ आत्माथी भिन्न
परद्रव्य छे; एटले आ आत्माना धर्मो ते परद्रव्यना आश्रये नथी; माटे परद्रव्यनो
आश्रय करवा जतां आत्माने अशुद्धता थाय छे. आ रीते कोईपण परद्रव्यनो
संयोग आत्माने माटे ध्रुव नथी. पोतानो उपयोगस्वरूप शुद्धआत्मा ज ध्रुव छे, ते
ज स्वधर्मोनो आधार छे, तेना ज आश्रये शुद्धता थाय छे.–आम जाणीने धर्मीजीव
कहे छे के ध्रुव एवा मारा शुद्ध आत्माने ज हुं उपलब्ध करुं छुं; शरीरादि परद्रव्यो
उपलब्ध होवा छतां (एटले के संयोगरूपे विद्यमान होवा छतां) तेमने हुं मारापणे
उपलब्ध करतो नथी, माराथी जुदा ज जाणुं छुं. सर्व परद्रव्यना संबंध वगरनो जे
उपयोगस्वरूप शुद्धआत्मा, तेने ज मारा स्वद्रव्यरूपे ध्रुवपणे उपलब्ध करुं छुं.
‘मन्येहं’–आवा उपयोगस्वरूप आत्माने ज हुं मारा स्वद्रव्यपणे मानुं छुं, उपलब्ध
करुं छुं, अनुभवमां लउ छुं. आवा आत्मानी उपलब्धि वडे मोहनो क्षय थईने
परमात्मपद प्रगटे छे.
* परथी भिन्न ने ज्ञानपर्यायरूप स्वधर्मोथी अभिन्न एवा शुद्ध आत्मानी
धु्रवता १९२ मी गाथामां बतावी;
* लक्ष्मी–शरीर, सुख–दुःख, शत्रु–मित्र वगेरे संयोगोने (गा. १९३ मां)
अध्रुव बताव्या.
* –आम जाणीने धर्मीजीव पोतानी पर्यायने अंतर्मुख करीने ध्रुवमां वाळे
छे, ने पर्यायमां ध्रुवने प्राप्त करे छे.–आ ज शुद्धात्मानी उपलब्धि छे.