शरणरूप नथी, आश्रयरूप नथी; ऊलटुं ते तो आत्माने अशुद्धतानुं कारण छे;
आत्माथी तेनो विभाग छे.–एटले उपयोगस्वरूप पोताना आत्मा सिवाय, बीजुं
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग–आत्मक जीव छे.
आ आत्माने, उपयोगस्वरूप पोतानो आत्मा ज ध्रुव छे; ए सिवायनां
‘मित्रजनो’ मां पंचपरमेष्ठीभगवंतो पण आवी जाय; तेओ आ आत्माथी भिन्न
परद्रव्य छे; एटले आ आत्माना धर्मो ते परद्रव्यना आश्रये नथी; माटे परद्रव्यनो
आश्रय करवा जतां आत्माने अशुद्धता थाय छे. आ रीते कोईपण परद्रव्यनो
संयोग आत्माने माटे ध्रुव नथी. पोतानो उपयोगस्वरूप शुद्धआत्मा ज ध्रुव छे, ते
ज स्वधर्मोनो आधार छे, तेना ज आश्रये शुद्धता थाय छे.–आम जाणीने धर्मीजीव
कहे छे के ध्रुव एवा मारा शुद्ध आत्माने ज हुं उपलब्ध करुं छुं; शरीरादि परद्रव्यो
उपलब्ध होवा छतां (एटले के संयोगरूपे विद्यमान होवा छतां) तेमने हुं मारापणे
उपलब्ध करतो नथी, माराथी जुदा ज जाणुं छुं. सर्व परद्रव्यना संबंध वगरनो जे
परमात्मपद प्रगटे छे.