आत्मा उपलब्ध कर्यो छे; ने जेणे धर्मी थवुं होय तेणे पण पर्यायने अंतर्मुख करीने
पोताना आवा धु्रवआत्माने उपलब्ध करवो–अनुभवमां लेवो.–आ ज जैन शासन
शुद्धोपयोगमां आखुं जैनशासन आवी गयुं.
योग्य छे.” अन्य पदार्थो तो, रस्ते चालता मुसाफरने वच्चे आवता वृक्षोनी
छायाना संग जेवा अध्रुव छे; ते पदार्थो संयोगी छे, अने तेमनो संयोग क्षण–
भंगुर–अध्रुव छे; तेनाथी आत्माने कांई प्रयोजन नथी. संयोगथी भिन्न ने
स्वभावधर्मोथी अभिन्न एवो पोतानो आत्मा ज पोताने माटे ध्रुव छे, तेने
उपलब्ध करवो एटले के अनुभवमां लेवो ते ज प्रयोजन छे.
भिन्नता जाणीने, स्वमां एकत्व करतां शुद्धता प्रगटी. अहो, परथी भिन्न ने
स्वथी अभिन्न (एवा एकत्व–विभक्त) आत्मानी वात जीवने सांभळवा
मळवी पण दुर्लभ छे. ‘परथी जुदा एकत्वनी उपलब्धि केवळ सुलभ ना.’
(स. गा. ४) तेथी आचार्यदेव कहे छे के हुं मारा आत्माना समस्त वैभवथी
एकत्व–विभक्त आत्मा देखाडुं छुं. (स. गा. ५) त्यां ‘दर्शावुं’ छुं’ एम कह्युं,
ने अहीं एवा आत्माने ‘हुं मानुं छुं’ एम कह्युं छे; ते स्वभावआश्रित थयेली
शुद्धपर्याय छे. अहो, आत्मा अचिंत्य अद्भुत आश्चर्यकारी महापदार्थ छे.
तेथी ते महान अर्थ छे, मोक्षस्वरूप छे, तेनी सन्मुख थईने व्यक्तिरूप मोक्षने
साधे छे. स्वसन्मुख थईने आवा आत्माने मानवो, तेमां मोक्षमार्ग आवी
जाय छे. शुद्ध आत्मानी उपलब्धि कहो के मोक्षनो मार्ग कहो.
अविभाग छे; परद्रव्योथी विभाग अने स्वधर्मोथी अविभाग–आवा स्वभावने
लीधे आत्मा एक छे; एक होवाथी शुद्ध छे, ने शुद्ध होवाथी ध्रुव छे; तेथी ते ज
सिवाय