: ६२ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
* अध्यात्मरस–घोलन *
(भविकजनोने आनंदजननी वैराग्य–अनुप्रेक्षा)
(९) निर्जरा–अनुप्रेक्षा
आ अधिकारमां तेर गाथाद्वारा निर्जराना स्थानो तथा तेना
उपाय बताव्या छे. सम्यक्त्वसन्मुख जीवने (त्रण करणमां) निर्जरानुं
पहेलुं स्थान शरू थाय छे, त्यांथी शरू करीने ठेठ अयोगी गुणस्थान सुधी
उत्तरोत्तर निर्जरा वधती जाय छे. सम्यक्त्व वगरना जीवने मोक्षना
हेतुरूप निर्जरा होती नथी. सम्यक्त्वसहितनुं उत्तम चारित्र ते निर्जरानो
विशेष हेतु छे.
१०२. निदानरहित, तथा अहंकाररहित एवा ज्ञानीने बारप्रकारनां तपथी तथा
वैराग्यभावनाथी निर्जरा थाय छे.
१०३. बधां कर्मोनी शक्तिनो विपाक थवो ते अनुभाग छे; त्यारपछी ते कर्मोनुं
खरी जवुं ते निर्जरा छे.
१०४. ते निर्जरा बे प्रकारनी छे–एक तो स्वकाळ अनुसार थती निर्जरा; अने
बीजी तप द्वारा करवामां आवती निर्जरा. तेमां पहेली स्वकालप्राप्त
निर्जरा तो चारेगतिना बधा जीवोने होय छे, अने बीजी निर्जरा
व्रतसहित जीवोने होय छे.
१०५. साधुओने जेम जेम उपशमभावनी तथा तपनी वृद्धि थाय छे तेम तेम
निर्जरानी वृद्धि थाय छे, अने धर्मशुक्लध्यानवडे तेनी विशेष वृद्धि थाय
छे.
१०६–१०८ (त्रणगाथा द्वारा निर्जरानी वृद्धिनां स्थानो कहे छे–)
* त्रणकरणवर्ती सातिशय मिथ्याद्रष्टि करतां सम्यग्द्रष्टिने असंख्यात
गुणी निर्जरा थाय छे.
* तेनाथी असंख्यगुणी निर्जरा अणुव्रतधारीने थाय छे.
* महाव्रतीने तेनाथी असंख्यातगुणी थाय छे.