: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ६३ :
* अनंतानुबंधी कषायना विसंयोजकने तेनाथी असंख्यगुणी थाय छे.
* दर्शनमोहनी त्रणप्रकृतिनो क्षय करनारने तेनाथी असंख्यगुणी
थाय छे.
* उपशमश्रेणीमां आरूढ चारगुणस्थानोमां अनुक्रमे तेनाथी
असंख्यगुणी निर्जरा थाय छे.
* क्षपकश्रेणीमां आरूढ जीवने, क्षीणमोहने, सजोगी नाथ एवा केवळी
भगवानने तथा अयोगीभगवानने अनुक्रमे असंख्य–
असंख्यगुणी निर्जरा थाय छे.
१०९. कषायरूपी शत्रुने जीतीने जे जीव, दुर्वचनो, साधर्मीद्वारा थती अवहेलना
तथा बीजा उपसर्गोने सहन करे छे तेने विपुल निर्जरा थाय छे.
११०. तीव्र उपसर्ग के परीसह आवतां, ‘आ मारां पापकर्मोनुं ज फळ छे–के जे
में ज पूर्वे बांध्यां हतां’ एम विचारीने जे जीव तेने ऋणथी छूटवा
समान समजीने धैर्यपूर्वक सहे छे तेने घणी निर्जरा थाय छे.
१११. शरीर तो ममत्वजनक विनश्वर अने अशुचीरूप छे, तथा दर्शन–ज्ञान–
चारित्र ते शुभजनक निर्मळ अने नित्य छे,–एम जे चिंतवे छे तेने घणी
निर्जरा थाय छे.
११२. जे पोताना दोषोने निंदे छे ने गुणवंतोनुं बहुमान करे छे, तथा स्वरूपमां
परायण थईने मन–ईन्द्रियोने जीते छे तेने घणी निर्जरा थाय छे.
११३–११४. जे जीव समभावरूप सुखमां लीन थईने वारंवार आत्माने अनुसरे
छे–चिन्तवे छे अने जे ईन्द्रियने तथा कषायने जीतनार छे, तेने परम
निर्जरा थाय छे; तेनो जन्म सफळ छे. तेने पापनी निर्जरा थाय छे,
पुण्यनी वृद्धि थाय छे, अने तेने परम सुख थाय छे.
पूर्वे बांध्या कर्म जे खरे तपोबल पाय;
निर्जरा कहेवाय ते, धारे ते शिव जाय.
(नवमी निर्जरा अनुप्रेक्षा पूरी थई.)
कर्मोतणो जे विविध उदयविपाक जिनवर वर्णव्यो;
ते मुज स्वभावो छे नहीं, हुं एक ज्ञायकभाव छुं.
–भगवत् कुंदकुंददेव