: ६४ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
(१०. लोक–अनुप्रेक्षा)
आ अधिकारमां १६९ गाथाओ छे. लोकस्वभावनुं वर्णन
करीने अंतमां कहेशे के–आवा लोकस्वभावने जे उपशमभावरूप
थईने जाणे छे ते तेनो ज शिखामणि थाय छे. लोकना बधा द्रव्योनुं
वर्णन करीने तेना सारभूत सरस वात करतां. गा. २०४ मां
मुनिराज कहे छे के–सर्वे द्रव्योमां उत्तम जीवद्रव्य छे, ते उत्तमगुणोनुं
धाम छे, ते बधा तत्त्वोमां परम तत्त्व छे,–एम हे भव्य! तुं
निश्चयथी जाण.
लोकनुं क्षेत्रप्रमाण, लोकमां रहेला जीवो, तेनी संख्या–प्राण
वगेरे, देह अने आत्मानी भिन्नता, बहिरात्मा, अंतरात्मा तथा
परमात्मा, अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप, प्रमाण–नय वगेरेनुं वर्णन
करीने तत्त्वनी भावना करवानुं कह्युं छे, अने आ लोकस्वरूपनी
अनुप्रेक्षानुं फळ लोकशिखामणि एवा सिद्धपदनी प्राप्ति कह्युं छे.
११५. सर्वव्यापी अनंत आकाश छे तेना बहु–मध्यभागमां लोक स्थित छे; ते
कोईए करेलो नथी तेम ज हरि–हर (शंकर–विष्णु) वगेरे कोईए तेने
धारी राखेलो नथी.
११६. एकक्षेत्रावगाहरूपे अन्योन्य प्रवेशथी जीवादि छ द्रव्योनुं जे अस्तित्व छे
ते लोक छे; द्रव्योनुं नित्यत्व होवाथी लोकने पण नित्य जाणो.
११७. द्रव्यो परिणाम–स्वभावी छे, तेथी प्रतिसमये तेओ परिणमे छे; तेमना
परिणामथी लोकना पण परिणाम जाणो.
११८–११९. चौदराजु ऊंचो एवो आ लोक, पूर्व–पश्चिमदिशामां नीचे मूळमां
सातराजु विस्तारवाळो छे, पछी (अनुक्रमे घटतां) मध्यभागमां
एकराजु छे; (पछी वधतां) उपर ब्रह्मस्वर्गना अंतभागमां पांचराजु
छे; अने (पछी घटतां) लोकान्ते एक राजुप्रमाण छे.
दक्षिण–उत्तरभागमां सर्वत्र तेनी पहोळाई सातराजु छे. आ रीते
आखा लोकनो विस्तार सातराजु घनप्रमाण छे. (७ × ७ × ७ = ३४३
राजु प्रमाण लोक छे. एकेक राजु असंख्य योजन विस्तारनो होय छे.)