: आसो : २५०१ आत्मधर्म : ६५ :
१२०. लोकनी बराबर मध्यमां मेरूपर्वत छे; तेनी नीचेना सातराजु ते
अधोलोक छे, उपरनो भाग ते ऊध्वलोक छे; अने मेरु जेटली
(एकलाख योजननी) ऊंचाईवाळो मध्यलोक छे.–ए प्रमाणे लोकनो
विभाग जाणवो.
(बराबर लोकनी वच्चे, एकलाखयोजन ऊंचो शाश्वत
मापवाळो ने शाश्वत स्थानवाळो मेरु पर्वत छे. तेथी लोकनी कोईपण
वस्तुनुं माप, ऊंचाई–नीचाई के समीपता अथवा दूरपणुं बताववा
मेरूपर्वत द्वारा माप करवामां आवे छे. ‘मेरु’ नो अर्थ ‘माप करनार,
एवो थाय छे.)
१२१. जीवादिक पदार्थो ज्यां देखाय छे–अवलोकाय छे तेने सर्वज्ञदेव लोक कहे छे.
ते लोकना शिखरे अंत वगरना अनंत सिद्धभगवंतो विराजे छे–शोभे छे.
(वाह! लोकमां रहेला जीवादि द्रव्योनुं वर्णन करतां सौथी पहेलांं
लोकशिखरे शोभायमान एवां मंगलरूप अनंत सिद्धभगवंतोने याद कर्यां.)
१२२. पांच प्रकारनां एकेन्द्रिय जीवोथी आ लोक सर्वत्र भरेलो छे; त्रसनाडीमां
सर्वत्र त्रसजीवो छे, परंतु तेनी बहार त्रसजीवो नथी.
१२३. पर्याप्त तथा अपर्याप्त ए बंने प्रकारनां स्थूळ (–बादर) जीवो बीजाना
आधारे रहे छे; तथा छ प्रकारनां सूक्ष्म जीवो (बीजाना आधार वगर)
लोकाकाशमां सर्वत्र विद्यमान छे.
१२४. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ए चार तो बादर पण होय छे ने सूक्ष्म पण
होय छे; तथा पांचमा वनस्पतिकाय जीवो साधारण तथा प्रत्येक–एम बे
प्रकारनां छे.
१२५. साधारण–वनस्पतिकायजीवोने ‘निगोद’ कहेवाय छे, ते बे प्रकारनां छे
–एक अनादिकालिन (अर्थात् नित्य निगोद,) अने बीजा सादि–कालिन
(अर्थात् ईतरनिगोद के चतुर्गति निगोद) ए बंने प्रकारनां साधारण
जीवो बादर पण छे ने सूक्ष्म पण छे. अने बाकीनां जीवो (प्रत्येक
वनस्पति तेमज त्रस)–ए बधां बादर ज छे.
१२६. जे अनंत जीवोने आहार, श्वासोश्वास, शरीर अने आयु ‘साधारण’
होय छे ते साधारण–जीवो छे; अने तेमनुं प्रमाण अनंतानंत छे. (ते
साधारण–वनस्पतिरूप निगोदमां, एक जीवनुं मरण थतां अनंत
जीवोनुं मरण थाय छे, अने एक जीव ऊपजतां अनंत जीवो ऊपजे छे.
–गोमट्टसार जी. गा. १९३)