: ७२ : आत्मधर्म : आसो : २५०१
अत्र योडसौ रागादि विकल्पउपाधिरहित समाधिलक्षण शुद्धोपयोगो
मुक्तिकारणं भणितः स तु शुद्धात्मद्रव्यलक्षणात् ध्येयभूतात्
शुद्धपारिणामिकभावात् अभेदप्रधान द्रव्यार्थिकनयेन अभिन्नो अपि भेदप्रधान
पर्यायार्थिकनयेन भिन्नः।
ध्यानरूप जे शुद्धपयोग छे तेने, शुद्धात्मद्रव्यलक्षणरूप–ध्येयभूत – शुद्ध–
पारिणामिकभावथी अभिन्न कहेवा ते अभेदप्रधान द्रव्यार्थिकनय छे; अने ते
शुद्धोपयोगने ध्येयथी भिन्न कहेवो ते भेदप्रधान पर्यायार्थिकनय छे.
* वस्तुस्वरूपने प्रमाणज्ञान जाणे छे. अने शुद्धद्रष्टिनो विषय शुं छे तेनी
पण ते प्रमाणज्ञानने खबर छे ज; एटले शुद्धद्रष्टिनो विषय प्रमाणज्ञानथी विरुद्ध
नथी होतो पण तेने अनुकूळ होय छे. अने ध्यान पण वस्तुस्वरूपना ज्ञानअनुसार
होय छे. ज्ञानवडे जाणेली सत्यवस्तुमां उपयोगनी एकाग्रता ते ज ध्यान छे.
अहो, वीरप्रभुना अनेकान्तशासन– अनुसार वस्तुस्थिति समजनार जीवो
जरूर आत्मिकशांतिने पामे छे.
* मोक्षशास्त्र गुजराती टीकामां शास्त्रधारे टीकाकार लखे छे के –
“द्रव्य – गुण अने पर्याय वस्तुपणे अभेद–अभिन्न छे; नाम, संख्या,
लक्षण अने प्रयोजननी अपेक्षाए द्रव्य, गुण अने पर्यायमां भेद छे, परंतु प्रदेशथी
अभेद छे. ’ (५–३८)
“गुण अने द्रव्य कंथचित् भिन्न छे, कथंचित् अभिन्न छे, एटले के
भिन्नाभिन्न छे. संज्ञा–संख्या – लक्षण – विषयादि भेदथी भिन्न छे, वस्तुपणे –
प्रदेश – पणे अभिन्न छे.... ’ (५–४२)
(आ रीते वस्तुना धर्मोमां स्वरूपभेद होवा छतां प्रदेशभेद नथी – एम
उपरोक्त कथननो आशय छे.)
(एक ज प्रदेशी परमाणुमां, के कालाणुमां एक ज समये उत्पाद– व्यय ध्रुव
त्रणे पोतपोताना स्वरूपे, एक ज प्रदेशे कई रीते रहेलां छे! तेनो विचार करवाथी
आ विषय स्पष्ट समजाशे. तेमने स्वरूपभेद कथंचित् छे, पण प्रदेशभेद नथी.)
आत्मधर्ममां आत्महित माटेना प्रेरणात्मक लेख वगेरे साहित्य विशाळ
वाचकवर्गने घणुं कल्याणकारी अने आत्महितपोषक छे. समग्र साधर्मीवर्ग तरफनो
वात्सल्यभाव तेनां मोखरे होय छे. लांबा वखत सुधी देश–विदेशमां सत्साहित्यनी
अनेकप्रकारे जे सेवा अने प्रभावना करी, ते द्वारा साधर्मीओ तरफथी प्रेमभाव
प्राप्त कर्यो, ते बदल हरकोई तरफथी आपनी कर्तव्यनिष्टाने अने शुद्ध सेवाभावने
अभिनंदन घटे छे. (ली. केशवलाल डी. शाह, एडवोकेट धांगध्रा)