Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 118.

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ट्रेक-११८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- छः द्रव्य, पंचास्तिकाय, नव तत्त्व, हेय-ज्ञेय-उपादेय तत्त्व, द्रव्य-गुण- पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य इत्यादिका ज्ञान सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके लिये जानना प्रयोजनभूत है? अथवा एक ध्रुव जीव स्वभावको जाननेसे मुक्ति मार्ग पर जा सकते हैं?

समाधानः- ज्यादा शास्त्रज्ञान हो तो जाननेमें आये ऐसा नहीं है। मूल प्रयोजनभूत तत्त्व जाने। ध्रुव और द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप, आत्मा, उसके गुण-पर्याय, स्व-परका भेदज्ञान जो प्रयोजनभूत है कि जो मोक्षमार्गमें प्रगट होता है, उसे प्रयोजनभूत हो उतना जाने तो भी मोक्षमार्ग प्रगट होता है। उसमें ज्यादा जाने तो होता है, ऐसा नहीं है। परन्तु प्रयोजनभूत तत्त्व तो जाने। शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे, परन्तु उन्हें यह दाल भिन्न और छिलका भिन्न, बाई धो रही थी उसमेंसे दाल भिन्न और छिलका भिन्न। वैसे मेरा आत्मा भिन्न और विभाव भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान करे। स्व-परका भेदज्ञान करके अंतरमें लीन हो गये। परन्तु स्व-परका भेदविज्ञानमें मैं यह द्रव्य हूँ और यह विभाव है। मैं अनादिअनन्त शुद्धात्मा हूँ। और यह पर्याय है, उस पर्यायमें विभाव होता है। लेकिन वह मेरा स्वभाव नहीं है।

स्वभाव-विभावका भेदज्ञान करके अंतरमें ऊतर गये। उसमें सब आ जाता है। जीवतत्त्व, आस्रव, संवर, निर्जरा सब। आंशिक साधकदशा हुयी। विशेष पुरुषार्थ करे तो निर्जरा होती है और पूर्णता होनेसे मोक्ष होता है। इस प्रकार उसकी परिणतिमें ही सब आ जाता है।

तिर्यंच कुछ जानते नहीं, तो तिर्यंचको शब्द नहीं आते, परन्तु स्व-परका भेदविज्ञान होता है कि मैं यह आत्मा हूँ और यह विभाव है। स्वभाव-विभावका भेदज्ञान हो, उसमें मैं यह चैतन्य स्वभाव, ज्ञायक स्वभाव मेरा आत्मा, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। और वह मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। उसे भावमें सब आ जाता है। भेदविज्ञानमें। नाम नहीं आते हैं।

मैं यह ज्ञायक हूँ और यह विभावकी परिणति मेरे स्वभावमें नहीं है। ऐसे भेदविज्ञान करके ज्ञायकको ग्रहण करता है। और उस ज्ञायककी ग्रहणतामें आगे बढे, आगे जानेका पुरुषार्थ, ज्ञायककी दृष्टिको दृढ रखनेका पुरुषार्थ, संवर, अमुक स्वरूपाचरण चारित्र सब


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उसमें आ जाता है। नव तत्त्वका सब उसमें आ जाता है। परन्तु उसे नाम नहीं आते हैं। परन्तु स्व-परका भेदज्ञान हो, उसमें नव तत्त्व उसकी साधकदशामें सब आ जाता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र। यह दर्शन एवं ज्ञान, ऐसी स्वयंकी प्रतीत की, मैं यह चैतन्य ऐसे अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि गयी। और यह पर। विभाव पर और मैं स्व। उसमें ज्ञान स्व-परको जाने यह आ जाता है।

अपनी ओर लीनता करता है। उसमें आंशिक स्वरूपाचरण चारित्र आता है। इसलिये उसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र (आ गया)। उसमें विशेष लीनताका प्रयत्न भी करता है। अतः उसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेद भी उसमें आ जाते हैं। उसे नाम नहीं आते। कितने ही तिर्यंच पाँचवें गुणस्थानको प्रगट करते हैं। इसलिये उसकी विशेष लीनताको भी प्रगट करते हैं। उसमें चारित्रकी दशा (आ जाती है)। दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेद भी आ जाते हैं। अतः भेद क्या, अभेद क्या, साध्य-साधकका जो पंथ है वह उसे बिना नाम भी उसमें आ जाता है।

इसलिये अमुक प्रयोजनभूत ज्ञान होना चाहिये। ध्रुवको जाने, ध्रुवको यथार्थ जाना कब कहनें आये? कि ध्रुवको यथार्थ जाने उसके साथ उसके सब पहलू आ जाय, तो उसने यथार्थ ध्रुवको जाना है। मैं ज्ञायक ध्रुव हूँ और यह विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसे उसके प्रयोजनभूत पहलू आ जाने चाहिये। अकेला ध्रुव यानी उस ध्रुवमें शुष्कतासे अकेला ध्रुव (आता हो कि) मेरेमें कुछ है ही नहीं। नहीं है यानी उसकी पर्यायमें भी नहीं है और पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, उसका कोई विवेक न हो तो उसने ध्रुवको यथार्थ ग्रहण नहीं किया है। ध्रुवमें सब पहलू आ जाने चाहिये।

ध्रुव, एक ज्ञायक ध्रुवमें सब आ जाता है। परन्तु वह यथार्थपने कब ग्रहण होता है? कि उसमें सब आ जाना चाहिये। तो यथार्थ ग्रहण किया है। दृष्टि, मैं ज्ञायक हूँ ऐसी दृष्टि सम्यक कब कही जाय? कि उसके साथ ज्ञान भी सम्यक (होता है)। ज्ञान जो विवेक करता है वह ज्ञानका विवेक और दृष्टि, दोनों सम्यक हो तो उसे सम्यक कहते हैं। परन्तु ज्ञान सम्यक नहीं हो तो दृष्टि सम्यक नहीं होती। और दृष्टि सम्यक न हो तो ज्ञान भी सम्यक नहीं होता। इसलिये उसमें सम्यक हो तो एक ध्रुवको ग्रहण करे तो भी उसमें सब आ जाता है। परन्तु उसमें संक्षेपमें स्व-परका भेदज्ञान, द्रव्यदृष्टिपूर्वकका स्व-परका भेदज्ञान (होता है)। परन्तु वह भेदविज्ञान अकेला नहीं होता।

भेदज्ञान किसे कहते हैं? कि द्रव्यदृष्टिपूर्वक हो तो ही भेदज्ञान (कहलाता है)। भेद किससे करे? स्वयं स्वयंको ग्रहण करे तो भेद पडे। स्वयंको ग्रहण किये बिना भेद होगा कैसे? मैं यह चैतन्य हूँ और यह नहीं हूँ, ऐसे स्वयंको ग्रहण किये बिना भेद होगा ही कैसे? यथार्थ भेदविज्ञान होता है उसमें द्रव्यदृष्टि भी आ जाती है।


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जो भगवानको जाने वह स्वयंको जानता है। ऐसा सम्बन्ध है। भगवानके द्रव्य- गुण-पर्यायको जाने, वह स्वयंके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है। स्वयंको द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने वह भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको जानता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। लेकिन द्रव्य-गुण-पर्यायमें सब संक्षेपमें आ जाता है।

अनादि कालसे मार्ग नहीं जाना है, उसमें निमित्त-उपादानका ऐसा सम्बन्ध है कि पहले एक बार भगवानकी वाणी अथवा कोई गुरुकी वाणी प्रत्यक्षपने मिल तब उसे अंतरमें अपूर्वता लगती है। करता है स्वयंसे, परन्तु उसमें ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध रहा है।

इस प्रकार एक ध्रुव ज्ञायकमें आ जाता है, परन्तु वह कब? कि सब पहलू, प्रयोजनभूत पहलू आ जाने चाहिये। पहलू आ जाते हैं। अकेला ध्रुव, रुखा ध्रुव हो जाय तो वह यथार्थ नहीं है।

मुमुक्षुः- सब पहलू जाने बिना सीधा ध्रुव पर जाया भी नहीं जाता।

समाधानः- ऐसे सीधा नहीं जा सकता। पहलू भी, ज्यादा ज्ञान हो अथवा ज्यादा शास्त्र जाने, जाने तो अधिक लाभका कारण है, फिर भी न जाने तो संक्षेपमें स्व- पर भेदविज्ञानको जाने तो भी उसमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- प्रथम ध्रुव स्वभाव पर दृष्टि करनी, उसके बाद पहलू जानना, ऐसा कुछ नहीं?

समाधानः- लेकिन वह प्रथम ध्रुव पर जाय, उसे सब पहलू आ जाते हैं। लेकिन ध्रुवको जाना नहीं है, अन्दर विचारसे नक्की किये बिना, ज्ञानका व्यवहार बीचमें आये बिना नहीं रहता। ज्ञानसे विचार करे, मैं कौन? पर कौन? ऐसे विचार किये बिना ज्ञानसे विवेक किये बिना वह आगे नहीं बढ सकता। मैं ध्रुव ही हूँ, ऐसा विचार किया, ज्ञानसे नक्की किया तो भी बीचमें ज्ञान तो आ ही जाता है। दृष्टि एवं ज्ञान दोनों साथमें ही रहे हैं। दृष्टि रखूँ, ज्ञानको निकाल दूँ तो ऐसे नहीं निकलेगा। ज्ञानको निकाल दूँ तो अकेली दृष्टि नहीं रहती।

आत्मा अनन्त गुणसे भरा, अनन्त धमासे भरा है। उसमेंसे एकको ग्रहण करुँ, एकको निकाल दो तो वस्तुको साध नहीं सकते। उसमें दोनों प्रकारका लक्ष्य रहना चाहिये।

मुमुक्षुः- (दृष्टि) त्रिकाली द्रव्यके सिवा किसीको स्वीकारती नहीं। दृष्टि पर्याय है और पर्यायमें तो राग-द्वेष होते हैं।

समाधानः- दृष्टि पर्याय है, परन्तु वह ग्रहण करती है अखण्डको। दृष्टिकी पर्यायमें राग-द्वेष होते हैं, ऐसा नहीं है। दृष्टिकी पर्यायमें राग (नहीं होता है)। पर्याय ग्रहण करती है अखण्ड द्रव्यको। दृष्टि पर्याय है, परन्तु उसका विषय पूर्ण द्रव्य है। वह द्रव्यको


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ग्रहण करती है। शाश्वत द्रव्यको ग्रहण करती है। राग-द्वेष तो विभाव पर्याय होती है उसमें राग-द्वेष होते हैं। दृष्टिकी पर्यायमें राग-द्वेष नहीं होते हैं। दृष्टिकी पर्याय भिन्न है और यह विभावपर्याय होती है वह भिन्न पर्याय है। दृष्टिकी पर्याय तो निर्मल है। चैतन्य पर दृष्टि गयी वह पर्याय निर्मल है। वह तो अखण्ड ध्रुव ज्ञायकको ग्रहण करती है।

मुमुक्षुः- एक प्रश्न है कि सम्यग्दर्शनमें जैसी भेदज्ञानकी धारा वर्तती है, उसी मार्गसे केवलज्ञान होता है? और केवलज्ञानका स्वरूप क्या है, यह समझानेकी कृपा कीजिये।

समाधानः- जो मार्ग सम्यग्दृष्टिका है, जो भेदज्ञान प्रगट हुआ, वही मार्ग आखिर तक रहता है। पहले जो जिज्ञासामें भावना करके, प्रयत्न करके, पुरुषार्थ करके जो सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ वह उसे अनादिकालसे जो दुर्लभ था, उसे पुरुषार्थ करके (प्रगट किया)। स्वभाव तो सुलभ है, परन्तु उसे अनादिकालसे एकत्वबुद्धिके कारण दुर्लभ हो गया था। वह जिसने पुरुषार्थकी भावना और पुरुषार्थ ज्ञायक ओरका बारंबार अभ्यास करके और देव-गुरु-शास्त्रके कोई अपूर्व निमित्तसे, देव-गुरु-शास्त्रका निमित्त तो कोई अपूर्व है, उससे स्वयं पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ और जो ज्ञायकको ग्रहण किया, वह मार्ग जो है वही मार्ग आखिर तक है। बादमें उसे मार्ग सहज और सुगम हो जाता है। ऐसा दुर्घट नहीं है।

जो ज्ञायक ग्रहण हुआ, वह ज्ञायक ग्रहण हुआ उसमें लीनताकी कमी है। लीनता कम है। बाकी जो ज्ञायक ग्रहण किया वही ज्ञायक, वह ज्ञायक जो सम्यग्दर्शनमें है, वही ज्ञायक मुनिदशामें है, वही ज्ञायक, पूर्ण दशामें भी वही ज्ञायक है। ज्ञायक कोई दूसरा नहीं है। ज्ञायक जो ग्रहण किया, ज्ञायककी परिणति जो दृष्टिमें आयी वही ज्ञायक, वहीका वही है। परन्तु उसमें उसकी परिणतिकी लीनताकी कमी है, वह लीनता बढाता जाता है। शुद्धात्मप्रवृत्तिलक्षण, जो शुद्धात्माकी परिणति प्रगट की वही मुक्तिका मार्ग है। जो शुद्धात्माको ग्रहण किया, सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रममें है उसे लीनताकी (कमी है), जैसे मुनि लीन होते हैं, उतने वे लीन नहीं सकते हैं। सम्यग्दृष्टि अनेक प्रकारके विकल्प, अनेक प्रकारकी प्रवृत्तिमें पडे होते हैं और मार्ग तो एक ही है।

मुनिदशामें, जो मार्ग सम्यग्दर्शनमें प्रगट हुआ वही मार्ग मुनिदशामें है। मुनि बारंबार स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। जो ज्ञायक ग्रहण किया, जो चैतन्यका घर ग्रहण किया था, उस घरमें बारंबार लीन हो जाते हैं, समा जाते हैं। और सम्यग्दृष्टिने ज्ञायकको ग्रहण किया है, बारंबार लीन नहीं जाते हैं, बाहर ज्यादा रहते हैं। मुनि बारंबार स्वरूपमें लीन हो जाते हैं, जम जाते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। बारंबार स्वरूपमेंसे उन्हें बाहर आना भी मुश्किल पडता है। एक अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं


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और फिरसे अन्दर चले जाते हैं। ऐसी दशा मुनिओंको प्रगट होती है।

मार्ग तो एक ही है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। केवलज्ञान भी उसी मार्गसे प्रगट होता है। मार्ग सरल है। उसे मार्ग सहज और सुगम हो गया है। श्रमणो, जिनो, तीर्थंकरो आ रीते सेवी मार्गने, सिद्धि वर्या ... निर्वाणनाथ.. बस, इसी मार्गसे मोक्ष है। आखिर तक एक ही मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। केवलज्ञान होता है, उस केवलज्ञानकी तो क्या बात करनी। जैसा चैतन्यद्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत है, ऐसा चैतन्यद्रव्य उसे परिणतिरूपमें प्रगट हो गया। जो चैतन्यद्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत, उसके अनन्त गुण परिणमनरूप (हो गये), जो शक्तिमें थे, कितने ही गुण शक्तिमें थे वह सब प्रगट हो गये। सब खिल गये। इसलिये जैसा चैतन्यद्रव्य था, वैसी उसकी सब पर्यायें खील गयी।

केवलज्ञान एक समयमें लोकालोकको (जानता है)। वह ज्ञानसागर, स्वयं अपने स्वरूपमें लीन हो गये हैं। ज्ञायकमें लीन हो गये, आनन्दसागरमें लीन हो गये। अनन्त गुण खील गये। परन्तु उस ज्ञानकी दिशा स्वरूप ओर हो गयी। पूर्ण दिशा। और सम्यग्दृष्टिको अमुक प्रकारसे ज्ञायक सन्मुख (दिशा हो गयी है)। ये तो पूर्ण स्वरूप सन्मुख ही लीन हो गये। लीन हो गये बादमें सहजपने क्षयोपशम, ज्ञान जो क्षयोपशरूप था, अंतर्मुहूर्तमें काम करता था, वह केवलज्ञानीका ज्ञान एक समयमें बिना विचार किये, ज्ञेयको जाननेकी इच्छा बिना, उसे इच्छा भी नहीं, निरिच्छिकपने ज्ञानकी ऐसी शक्ति है, ज्ञान ऐसा सर्वज्ञ स्वभाव आत्माका एक समयमें पूरे लोकालोकको (जानता है)।

अनन्त द्रव्यका भूतकाल, वर्तमान, भविष्य ऐसे अनन्त-अनन्त द्रव्योंके गुण-पर्यायोंको उसके भिन्न-भिन्न अनन्त काल सब एक समयमें उसके ज्ञानमें आ जाता है। फिर भी अणुरेणवत है। उसे बोझ नहीं होता। ज्ञानमें अणु कैसे पडा हो, उसकी भाँति। स्वयं अपनेमें डूबे हुए रहते हैं। ऐसा स्वपरप्रकाशक ज्ञान उसे खील जाता है। वह केवलज्ञान। उन्हें इच्छा भी नहीं है। स्वपरप्रकाशकज्ञानमें... पहले नाश नहीं हो जाता है, शक्तिमें होता है, वह सब प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! प्रश्न है कि आप वचनामृतमें फरमाते हो कि शुद्ध द्रव्य स्वभावकी दृष्टि करके पर्यायकी अशुद्धताको ख्यालमें रखकर पुरुषार्थ करना। तो अशुद्धताका पर्यायमें अनादिसे पक्ष तो किया ही है, तो आप उसका ख्याल न छूट जाय, ऐसा क्यों फरमाते हो?

समाधानः- वह तो अनादिकालसे जो किया है वह तो पक्ष किया है कि मैं तो अशुद्ध ही हूँ। द्रव्यको भूल गया है। और जो अशुद्धताकी पर्याय है, अशुद्धताकी पर्याय कि मैं अशुद्ध हो गया, रागी हो गया, द्वेषी हो गया, आत्मा तो कहीं दिखाई नहीं देता। इसलिये द्रव्य स्वरूपको भूल गया और एकान्त जो पर्याय परिणमती है,


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उस पर्याय पर ही उसकी दृष्टि है। और एकान्तरूपसे आत्माको भूल गया है। और सिर्फ अशुद्धता-अशुद्धताको देखता रहता है, अशुद्धताकी अनुभूति करता है। अशुद्धताका पक्ष करता रहता है। आत्मा दिखता नहीं है। यह सब राग-द्वेष टाल दूँ। कैसे टालना उसका उसे कोई ख्याल नहीं है। द्रव्यको भूल गया है और अकेली पर्यायमें दृष्टि हो गयी है और एकान्त हो गया है। इसलिये वह पक्ष छोड देनेका आचार्यदेव कहते हैं।

अशुद्धताका पक्ष अनादिकालसे किया। एक शुद्ध स्वरूपका पक्ष कभी नहीं किया है। इसलिये उस अपेक्षासे है।

मुमुक्षुः- एकान्त.. समाधानः- हाँ, एकान्तकी अपेक्षासे है। अर्थात ऐसा नहीं कहना है कि तेरी अशुद्धता पर्यायमें भी नहीं है, ऐसा आचार्यदेवको नहीं कहना है। आचार्यदेव (कहते हैं), द्रव्यदृष्टिसे तू शुद्ध है, उसे तू देख। तेरी शुद्धता तेरेमें भरी है। अशुद्धता तेरेमें घुस नहीं गयी है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! कहान गुरुदेवनुं हार्द समजावनार भगवती

मातनो जय हो! जन्म जयंति मंगल महोत्सवनो जय हो!

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