Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 228.

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ट्रेक-२२८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- दृष्टि करनी, तो दृष्टि करनी कैसे?

समाधानः- दृष्टि बाहर जाती है, उसको पलटकर मैं अनादिअनन्त शाश्वत आत्मा हूँ। अनादिअनन्त एक चैतन्यद्रव्य, उसमें कुछ... अनन्त भव किये, निगोेदमें गया, अनन्त- अनन्त जन्म-मरण किये, तो भी आत्मा तो वैसा ही, जैसा है वैसा ही (रहा है)। उसमें कुछ स्वभावका नाश नहीं हुआ। इसलिये दृष्टि पलटकर आत्मामें दृष्टि देना कि मैं तो चैतन्य आत्मा ही हूँ। मैं शुद्धात्मा हूँ। शुद्ध तरफ दृष्टि देने-से शुद्धात्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। और विभावमें दृष्टि देने-से विभावकी पर्याय होती है।

सुवर्णमें-से सुवर्णके झेवर होते हैं। सुवर्णके झेवर। लोहमें-से लोहेके झेवर होते हैं। विभावमें-से विभाव होता है, स्वभावमें-से स्वभाव होता है। इसलिये अंतर दृष्टि करना, स्वभाव तरफ दृष्टि करना।

मुमुक्षुः- करनी कैसे?

समाधानः- पुरुषार्थ करने-से होती है। दृष्टि तो स्वयं अंतरमें करे तो हो। कोई कर नहीं देता है। अपना पुरुषार्थ करने-से (होती है)। देव, गुरु, शास्त्र मार्ग बताते हैं, उस मार्ग पर चलने-से क्या मार्ग है? गुरुने कैसा मार्ग बताया? जिनेन्द्र देव कैसा कहते हैं? शास्त्रमें कैसा आता है? वह विचार करके, यथार्थ निर्णय करके आत्मामें दृष्टि पुरुषार्थ द्वारा करना। कोई कर नहीं देता है। अनन्त काल हुआ तो कोई करता नहीं है, अपने पुरुषार्थ-से होता है। दृष्टि अपना पुरुषार्थ करके स्वभाव तरफले जाना।

जैसे स्फटिक निर्मल है, वैसे आत्माका स्वभाव निर्मल है। स्फटिकमें ऊपर लाल- पीला रंग देखनेमें आता है। काले-लाल फूलके निमित्तसे काला-लाल दिखाई देता है, परन्तु भीतरमें सफेद है।

वैसे आत्मा मूल स्वभावसे स्फटिक जैसा निर्मल है और विभावकी कालिमा दिखाई देती है वह पुदगलके निमित्तसे और पुरुषार्थकी मन्दतासे विभाव होता है। उसका मूल स्वभाव नहीं है। स्वभाव तो निर्मल है। उस निर्मल तरफ दृष्टि करके उसमें निर्मल पर्याय प्रगट होती है। ऐसा भेदज्ञान करने-से निर्विकल्प स्वानुभूति होती है। वह स्वानुभूति बढते-बढते मुनिदशा होती है तो क्षण-क्षणमेंं स्वानुभूति आत्मामें लीन होता है। मुनिराज


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तो अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वभावमें लीनता करते हैं। ऐसे लीनता करते-करते केवलज्ञान होता है। बाहरसे नहीं होता है। बाहरसे तो क्रिया (करे), शुभभाव-से पुण्य होता है। भीतरमें अंतर दृष्टि और अंतरमें ज्ञान, श्रद्धा और लीनता करने-से स्वानुभूति प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- श्रीमदमें आता है, अपूर्व अवसर ऐसा कब आयगा? ज्ञानी .. मोक्षकी भावना भाते हैं। समयसारकी .. गाथामें आता है, ज्ञानी उपशम, क्षयोपशम, क्षायिकरूप शुद्ध भावना है, उसमें ऐसा भाते हैं कि मैं अखण्ड हूँ। दोनों भावोंमें क्या अंतर है?

समाधानः- मैं अखण्ड ज्ञायक तत्त्व हूँ और विभावभाव मेरा स्वभाव नहीं है, अधूरी पर्याय जितना मैं नहीं, पूरी पर्याय नहीं, मैं तो अखण्ड शाश्वत द्रव्य हूँ। ऐसी भावना, ऐसी दृष्टि यथार्थ करते हैं तो भी पर्यायमें तो अधूराश है। ज्ञान ऐसा रहता है, ज्ञान रखता है कि मैं शाश्वत द्रव्य तो हूँ, पर्यायमें अधूराश है। पर्याय कहीं पूर्ण नहीं हुयी है। वीतराग स्वभाव है, लेकिन वीतरागताकी पर्याय और वीतरागताका वेदन नहीं हुआ है। केवलज्ञान नहीं हुआ है, इसलिये उसकी भावना होती है।

अपूर्व अवसर ऐसा कब आयगा? कब ऐसा अपूर्व अवसर आये कि मैं आत्माका ध्यान करुँ, निर्विकल्प स्वानुभूति (करके) बारंबार आत्मामें लीनता करुँ, मुनिदशा प्रगट होवे, एकान्तवासमें आत्माका ध्यान करके केवलज्ञान प्रगट करुँ, ऐसे पर्यायकी शुद्ध करनेके लिये भावना आती है। और द्रव्य अपेक्षासे मैं शुद्ध हूँ।

समयसारमें ऐसा आता है कि द्रव्य अपेक्षासे मैं शुद्ध हूँ परन्तु पर्यायकी शुद्धिके लिये मैं कब केवलज्ञान प्राप्त करुँ? कब मुनिदशा प्राप्त करुँ? ऐसी भावना आती है। द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षासे। पर्याय तो शुद्ध पूर्ण नहीं हुयी है, द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण है।

मुमुक्षुः- इसे खण्डकी भावना कह सकते हैं?

समाधानः- भावना तो आवे, पर्यायकी शुद्धिकी भावना आये। आचार्यदेव अमृतचन्द्राचार्यने कहा है न, मम परमविशुद्धि चिन्मात्र... मैं तो चैतन्य शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हूँ, परन्तु मेरी परम विशुद्धिके कारण मैं यह शास्त्र रचता हूँ। शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति द्रव्य अपेक्षासे हूँ और पर्यायमें मेरी परम विशुद्ध होओ। ऐसी भावना तो साथमें आती है। पर्यायकी शुद्धिकी भावना आती है।

पर्यायकी शुद्धिकी भावना आती है। पर्यायमें मेरी पूर्णता नहीं है। द्रव्य भले शक्तिसे परिपूर्ण है, परन्तु प्रगट वेदन पूर्णताका नहीं है। जैसा द्रव्य है वैसी पर्याय पूर्ण हो जाय, पूर्ण वेदन वीतरागका (हो जाय)। जैसा द्रव्य, वैसी पर्याय भी हो जाय। पर्यायमें विभाव है, पर्यायमें पूर्णता नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण है। पर्यायमें न्यूनता है तो भावना भाते हैं कि कब मुनिदशा प्राप्त हो? ऐसी भावना आती है।

द्रव्य-पर्यायका मेल है। निश्चय-व्यवहारकी सन्धि साधकोंको आती है। गृहस्थाश्रममें


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आत्माकी स्वानुभूति थी, निर्विकल्प स्वानुभूती (थी)। न्यारे रहते थे, निर्लेप रहते थे। तो भी भावना आती थी, मैं कब आत्मामें लीन हो जाऊँ? मुनिदशा प्राप्त करुँ, (ऐसी) भावना आती है।

पूर्ण हूँ यानी पूर्ण ही हूँ, अतः कुछ करना नहीं है, ऐसा नहीं आता। जिसे यथार्थ द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी, जिसको आत्माका संपूर्ण... द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी, (उसे) पर्यायकी भावना साथमें रहती ही है। यदि भावना न रहे तो उसकी द्रव्यदृष्टि भी यथार्थ नहीं है। जिसे द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी उसे भावना साथमें होती ही है। मैं कैसे आत्मामें लीनता करुँ, ऐसी भावना होती ही रहती है। द्रव्य पूर्ण और पर्यायकी शुद्धि, ये दोनों साथमें रहते हैं। पर्यायकी शुद्धि, आंशिक शुद्धि तो होती है, परन्तु पूर्ण शुद्धि कैसे हो, ऐसी भावना आती ही रहती है।

मुमुक्षुः- निरंतर चलती है?

समाधानः- चलती है, पुरुषार्थ चलता है। कोई बार भावना उग्र हो जाय। दशा नहीं प्रगट हुयी है, परन्तु भावना आती है। पुरुषार्थकी डोर चालू ही है। शुद्धि कैसे हो? उसे जैसे पुरुषार्थ उत्पन्न हो उस अनुसार शुद्धि होती है। भावना रहती है।

मुमुक्षुः- सहज ..

समाधानः- सहज चलती है। मैं द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण हूँ और पुरुषार्थकी डोर चालू है। भावना कोई बार जोरदार तीव्रपने भावना रहे, वह अलग बात है।

मुमुक्षुः- ... आनन्द न हो तो वह पुरुषार्थ दूसरे कोई भी भवमें कैसे उत्पन्न होता है?

समाधानः- पुरुषार्थ करे.. बारंबार उसके संस्कार डाले, अन्दर गहरे हो तो उसे अवश्य भेदज्ञान होता ही है। परन्तु यथार्थ हो तो। मैं यह चैतन्य हूँ, दूसरा कुछ मुझे नहीं चाहिये। चैतन्य तरफकी ऐसी अपूर्व रुचि और ऐसी महिमा हो, और बारंबार उसकी लगन लगे, तत्त्वका विचार करे कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, अन्य कुछ मेरा नहीं है। ऐसी भावना रखे, बारंबार उसका अभ्यास रखे, बारंबार उसका चिंवतन करे। ऐसी भावना हो तो उसे.. अंतरमें-से हो, भेदज्ञानका पुरुषार्थ बारंबार करता हो तो उसे अवश्य होता है। उसका कारण यथार्थ हो तो कार्य आता है। उसका फल आये बिना नहीं रहता। पुरुषार्थ बारंबार (करे)। वह थके नहीं। उसकी भावना, जिज्ञासा अंतरमें- से रहा ही करे बारंबार, तो उसका फल अवश्य आता है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- मात्र मोक्ष अभिलाष। एक अभिलाष मोक्षकी है, दूसरी कोई अभिलाषा नहीं है। मुझे दूसरा कुछ नहीं चाहिये, एक आत्माके अलावा कोई प्रयोजन नहीं है।


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मुमुक्षुके जो-जो कार्य हो वह एक आत्माके लिये (होते हैं)। मात्र मोक्षकी अभिलाष, दूसरी कोई अभिलाषा नहीं है। मात्र मोक्ष अभिलाष। आत्माका स्वरूप मुझे कैसे प्रगट हो? मोक्ष यानी अंतरमें-से मुक्तिकी दशा (कैसे प्रगट हो)?

कषायकी उपशान्तता, मात्र मोक्ष अभिलाष। मात्र मोक्षकी अभिलाष। उसे ऐसे तीव्र.. विभावमें उतनी तन्मयता नहीं होती, विभावका रस मन्द पड गया हो, चैतन्य तरफके रसकी वृद्धि हुयी हो। चैतन्य तरफकी महिमा, रुचि अधिक होती है। एक मात्र मोक्षकी अभिलाषा-से, मोक्षके हेतु-से आत्माके हेतु-से, मुझे आत्माकी कैसे प्राप्ति हो? इस हेतु-से उसके प्रत्येक कार्य हो। उसकी जिज्ञासा, रुचि, लगनी सब आत्माके हेतु-से (होता है)। शास्त्र स्वाध्याय, वांचन, मनन मुझे आत्माकी कैसी प्राप्ति हो? (इस हेतुसे होता है)। "मात्र मोक्ष अभिलाष, भवे खेद अंतर दया, त्यां आत्मार्थ निवास।' जहाँ आत्मार्थका प्रयोजन है।

समाधानः- ... (गुरुदेवने) कितना स्पष्ट कर दिया है। कहीं किसीकी भूल न रहे ऐसा नहीं है। मार्ग सरल और सुगम कर दिया है। मात्र स्वयंको पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। कोई क्रियामें रुके (बिना), शुभभाव, गुणभेद, पर्याय सब परसे दृष्टि (उठाकर) एक चैतन्य पर दृष्टि कर। फिर बीचमें सब आता है, ज्ञानमें जान। दृष्टि आत्मा पर करके जो पर्यायमें शुद्धि है, उस शुद्धिका पुरुषार्थ उसके साथ रहता है। पर्यायमें भेदज्ञान करके विशेष शुद्ध करने हेतु उसका प्रयत्न उसके साथ ही रहता है। वह करना है। पहले आत्माको पहचानना, उसका भेदज्ञान करना। भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करना।

... अगाधता उसे मालूम नहीं है, वह स्वयं स्वानुभूतिमें जाय तो मालूम पडे। उपयोग बाहर हो तो कहाँ मालूम पडता है। दृष्टान्त कैसा देते हैं। "जे मार्गे सिंह संचर्या, रजो लागी तरणा'। घास नहीं चरेगा। चैतन्य जैसा सिंह, स्वयं ही जहाँ पलटा, उसके पुरुषार्थ-से सब कर्म, विभाव ढीले पड जाते हैं। (सिंह) जिस रास्ते पर चला हो, वह चला हो उसकी रज ऊडे, वहाँ बेचारा हिरन खडा नहीं रह सकता। ऐसा सिंहका पराक्रम होता है। सिंह जैसा आत्मा, पराक्रमी साधक आत्मा ऐसे महापुरुष जिस मार्ग पर चले, उस मार्ग पर कायरोंका काम नहीं है। दूसरे कायरोंका काम नहीं है। यह मार्ग वीरोंका है। जिस मार्ग पर चले, भगवान जिस मार्ग पर चले वह मार्ग तो वीरोंका है, कायरोंका काम नहीं है, ऐसा कहते थे। हिरन जैसे आप कोई खडे नहीं रह पाओगे, ऐसा कहते थे। अन्दर आत्मा.. महापुरुष जिस मार्ग पर चले, उस मार्ग पर तुम कायर खडे नहीं रह पाओेगे, ऐसा कहते हैं। जोरदार कहते थे। सुननेवाले एकदम...

महावीर भगवान ऊपर जाते हैं, गौतम स्वामी.. बहुत साल पहले ऐसा जैन प्रकाशमें


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किसीने छापा था। प्रभु! खडे रहो, ये मेरा कपडा इसमें अटक रहा है। ऐसे सब श्वेतांबरमें (कथन आते हैं)। अरे..! गुलाममार्गी! ऐसा कहे। उसमें ऐसा आता है। ये तेरा मार्ग नहीं है। तेरा कपडा अटक रहा है, कपडेको छोड। ऐसा सब आता था। ... छोड सब। विकल्प नहीं उत्पन्न होता है। हम आज ही धर्म अंगीकार करेंगे। ऐसा जोरदार। आज ही अंगीकार करेंगे। असरकारक। सब डोल उठे, पूरी सभा डोले। उतना भाववाही। तीर्थंकरका द्रव्य, उनकी वाणी ऐसी, अन्दर भाव ऐसे। भाव और वाणी, सब। ...

आहार लेने निकलते तो ऐसे लगते, सिंह जैसे। सब काँपे। पधारो, पधारो भावसे कहे। ऐसे महापुरुष हमारे आँगनमें पधारे, हमारा महाभाग्य। लेकिन थोडा फेरफार हो तो सिंहकी भाँति चले जाते, सामने तक नहीं देखते थे। सब ऐसे देखते रह जाते, और आँखमें-से आँसु चले जाय, सामने कौन देखता है? ऐसे थे। आहार लेने निकलते। थोडा फेरफार हो जाय, मालूम पडे कि मेरे लिये आपने बनाया है, खडा कौन रहता है? क्यों बनाया, इतना भी पूछने खडे नहीं रहते। बिजलीका चमकारा हो, वैसे चले जाते। आज अपने आँगनमें कानजीस्वामी आकर वापस चले गये। कितना दुःख हो। हूबहू साधु दिखे, स्थानकवासी संप्रदायके। एक नमूना, साधुका नमूना दिखता हो वैसे दिखते थे।

समाधानः- ... नक्की स्वयंको करना है। यह शरीर तो प्रत्यक्ष जड दिखता है, जो कुछ जानता नहीं। अन्दर विभाव होता है, उसे भी जाननेवाला तो स्वयं है। विभाव जितने हो वह सब चले जाते हैं। वह खडे नहीं रहते। सब विभाव, विकल्प चले जाते हैं और जाननेवाला खडा रहता है। वह जाननेवाला जो है, उस जाननेवालेको जानना। वास्तवमें तो वही करना है। उसीकी महिमा करनी, उसीकी प्रतीति करनी। मैं भिन्न, मेरा स्वभावमें ही अनन्त शक्ति और अनन्त महिमासे मैं भरा हूँ। विभाव तो निःसार-सारभूत नहीं है। विचार करे तो वह आकुलतारूप है, दुःखरूप है। वह कहीं सुख नहीं है और सुखका कारण भी नहीं है। ऐसे स्वयं नक्की करना चाहिये।

पानी स्वभावसे शीतल है, परन्तु अग्निके निमित्त-से उष्णता हो तो वह उष्णता पानीका स्वभाव नहीं है। स्वभाव-से शीतल है। ऐसे आत्मा अन्दर शीतलतासे भरा हुआ, ज्ञान और आनन्दसे भरा है, ऐसा नक्की करना चाहिये। यह विभाव परिणति मेरे स्वरूप-स्वभाव-ओरकी नहीं है। निमित्त है, उस निमित्तके कारण पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है। कोई पर करवाता नहीं, परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, इसलिये मैं उससे कैसे भिन्न होऊँ? इस प्रकार पुरुषार्थ करके स्वयं ही अपनी ओर मुडना है, कोई मोडता नहीं है।

समाधानः- ... अनन्त तीर्थंकर मोक्ष गये, इसी मार्ग-से गये हैं। आत्मस्वभावको


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पहचानकर, ज्ञायकको पहचानकर अनन्त तीर्थंकरों, मुनिवरों सब मोक्ष गये वे, भेदज्ञानसे और स्वभावको-ज्ञायक स्वभावको पहचानकर ही गये हैं। परन्तु जो पुरुषार्थ करता है वह जाता है, जो पुरुषार्थ नहीं करता है वह नहीं जाता। पुरुषार्थ करे वह जाता है। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। भेदविज्ञान-से, जो सिद्धिको प्राप्त हुए वे उसीसे प्राप्त हुए। आत्मस्वभावको पहचानकर। जिसने प्राप्त नहीं किया, उसके अभाव- से नहीं प्राप्त हुए।

मुमुक्षुः-... न्यूनता लगती है कि ऐसा नहीं चलेगा।

समाधानः- उसका कारण स्वयंका ही है। स्वयं रुक गया है। अनादिके अभ्यासमें अटक गया है। जितना अपनी ओरका अभ्यास चाहिये उतना करता नहीं है। गहराईमें जाता नहीं है और बाहर ही बाहर रुक गया है। इसलिये अपनी कचासके कारण ही स्वयं आगे नहीं जा सकता है।

मुमुक्षुः- सत्पुरुषका लाभ लेना हो, उसमें कोई..

समाधानः- ..होता हो तो उसमें अपना कारण है। स्वयंको सत्संगकी भावना हो, सत्पुरुषकी वाणी-श्रवणकी भावना हो, परन्तु बाह्य संयोग ऐसे हो तो शान्ति रखनी। दूसरा क्या कर सकता है? भावना भाये तो योग बराबर बन जाता है।

मुमुक्षुः- क्षति अपनी भावनाकी है, ऐसा ही मानना। समाधानः- अपनी भावनाकी क्षति है। (बाह्य संयोग) अपने हाथकी बात नहीं है, परन्तु भावना रखे। ... अपने हाथकी बात नहीं है, स्वयं अपने भावको बदल सकता है। ऐसा कोई पुण्यका योग हो तो संयोग बदल जाय। अपनी भावना उग्र करे तो।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!