Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 276.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 273 of 286

 

PDF/HTML Page 1815 of 1906
single page version

ट्रेक-२७६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- द्रव्य पर्यायमें आता नहीं, वह कैसे?

समाधानः- द्रव्य पर्यायमें नहीं आता अर्थात द्रव्य है वह द्रव्यस्वरूप ही है। द्रव्यका स्वरूप शाश्वत अनादिअनन्त है और पर्याय है वह क्षणिक है। वह पर्याय पलट जाती है। द्रव्य, पर्यायकी भाँति क्षण-क्षणमें पलटे ऐसा द्रव्य नहीं है। द्रव्य पर्यायमें आता नहीं अर्थात द्रव्य कहीं क्षण-क्षणमें पलटता नहीं है। द्रव्य तो एक सरीखा रहता है और पर्याय तो पलटती है। इसलिये द्रव्य पर्यायमें इस तरह नहीं आता।

बाकी पर्याय है वह द्रव्यका स्वरूप है। द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों मिलकर द्रव्यका स्वरूप है। लेकिन वह पर्याय प्रतिक्षण पलटती है। परन्तु द्रव्य पलटता नहीं है। इसलिये द्रव्य पर्यायमें नहीं आता। द्रव्य अनादिअनन्त है और पर्याय पलटती रहती है। परन्तु वह पर्याय द्रव्यके आश्रय-से होती है। पर्याय कहीं निराधार नहीं होती है। पर्याय द्रव्यके आश्रय-से ही होती है, पर्याय द्रव्यमें ही होती है।

स्वभावपर्याय जो द्रव्यके आलम्बन-से होती है, जो अनन्त गुणोंकी ज्ञानकी पर्याय हो, आनन्दकी पर्याय हो वह सब शुद्धात्माके-द्रव्यके आश्रयसे होती है। और विभाव जो होता है वह अपने पुरुषार्थकी मन्दता-से होती है, विभाविक पर्याय। परन्तु वह विभावकी पर्याय अपना स्वभाव नहीं है। उसका और स्वयंका भावभेद है। अपना स्वभाव अलग और विभावपर्यायका स्वभाव भिन्न है। इसलिये उसका भावभेद है। इसलिये उससे भेदज्ञान करता है कि ये जो विभावका आकुलतायुक्त भाव है, वह मेरा स्वभाव नहीं है। स्वभाव भिन्न है। पुरुषार्थकी मन्दता-से उसकी पर्याय होती है, परन्तु वह पर्याय विभाव है, वह भाव भिन्न है। उसका भाव भिन्न है और मेरा भाव भिन्न है। उससे भेदज्ञान करता है। पुरुषार्थ तीव्र हो तो वह विभावपर्याय छूट जाती है और स्वभाव पर्याय प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ अर्थात जैसा हूँ वैसा अहंभाव होना चाहिये?

समाधानः- स्वभाव जैसा है, वैसा उसे ग्रहण करना चाहिये कि यह मैं हूँ। उसका अस्तित्व ग्रहण करना चाहिये। विकल्परूप-से कि यह मैं हूँ, ऐसा नहीं, परन्तु जो ज्ञानकी धारा चल रही है, वह ज्ञान चल रहा है, उस ज्ञानको धरनेवाला एक


PDF/HTML Page 1816 of 1906
single page version

चैतन्य है, उस चैतन्यको ग्रहण करना।

जो अन्दर मैं, मैं हो रहा है, विकल्परूप नहीं, परन्तु वह जो ज्ञानका अस्तित्व है, जो सबको जाननेवाला है, जो अनन्त काल गया अथवा स्वयं छोटे-से बडा हुआ, वह सब भाव तो चले गये, परन्तु उसको जाननेवाला तो वैसा ही है। धारावाही जाननेवाला है। छोटा था, फिर क्या हुआ, जो विचार आये, गये, उन सबको जाननेवाला तो धारावाही ऐसा ही है। उस जाननेवालेका जो अस्तित्व है वह मैं हूँ। जाननेवाला मैं हूँ। बाहरका जाना इसलिये जाननेवाला हूँ, ऐसा नहीं, परन्तु मैं जाननेवाला स्वयं जाननेवाला ही हूँ। जाननेवालेका अस्तित्व ग्रहण करना।

.. आश्रय-से होती है, परन्तु पर्याय जितना द्रव्य नहीं है। पर्याय क्षणिक है, अंश है। और द्रव्य है सो तो अंशी है। अनन्त पर्यायरूप द्रव्य परिणमता है और पर्याय तो पलटती रहती है। और द्रव्य तो अनादिअनन्त एकसरीखा है। अतः अंश जितना द्रव्य नहीं है। द्रव्य तो पूरा अंशी अनादिअनन्त अनन्त-अनन्त स्वभाव-से भरा है। अनन्त स्वभाव-से भरा है।

मुमुक्षुः- अनन्त गुण जो कहनेमें आता है, वह क्या है?

समाधानः- अनन्त गुण कहो, अनन्त स्वभाव कहो, वह सब एक है।

मुमुक्षुः- द्रव्य निष्क्रिय कैसे है?

समाधानः- द्रव्य निष्क्रिय अर्थात पारिणामिकभावकी अपेक्षा-से वह क्रियावान है। उसमें परिणति होती है। प्रत्येक गुणोंकी पर्याय (होती है)। ज्ञानका कार्य ज्ञानरूप आये, आनन्दका कार्य आनन्दरूप आता है। प्रत्येक गुणका कार्य उसमें आते ही रहता है। केवलज्ञानीको केवलज्ञान होता है, लोकालोकको जाने वह सब ज्ञानका कार्य आता है। केवलज्ञानी आनन्दरूप परिणमते हैं, आनन्दका कार्य आवे। उस अपेक्षा-से द्रव्य सक्रिय है। परन्तु वह क्रिया ऐसी नहीं है कि वह द्रव्य सर्व प्रकार-से क्रियात्मक है।

स्वयं अनादिअनन्त निष्क्रिय है। स्वयं अपनी अपेक्षा-से द्रव्य निष्क्रिय है। मर्यादामें उसकी क्रियाएँ होती है। अपना द्रव्य पलट जाय ऐसी क्रिया उसमें नहीं होती है। अपना स्वभाव रखकर वह क्रिया उसमें होती है। उस अपेक्षा-से द्रव्य निष्क्रिय है। पर्याय अपेक्षा- से सक्रिय है और द्रव्य अपेक्षा-से निष्क्रिय है। सर्वथा निष्क्रिय नहीं है।

मुमुक्षुः- वहाँ द्रव्य अकेला ध्रुव लेना?

समाधानः- हाँ, अकेला ध्रुव द्रव्य। द्रव्य एकसरीखा रहता है।

मुमुक्षुः- जो दृष्टिका विषय बनता है वह?

समाधानः- हाँ, जो दृष्टिका विषय बनता है, वह द्रव्य एकसरीखा निष्क्रिय रहता है। जिसमें कोई फेरफार नहीं होते। अनादिअनन्त एकरूप रहता है। अपना नाश नहीं


PDF/HTML Page 1817 of 1906
single page version

होता, ऐसा अनादिअनन्त निष्क्रिय द्रव्य है। परन्तु द्रव्य अपेक्षा-से निष्क्रिय, पर्याय अपेक्षा- से सक्रिय है। यदि निष्क्रिय हो तो केवलज्ञानकी पर्याय नहीं हो, आनन्दकी पर्याय नहीं हो, उसमें साधक दशा नहीं हो, मुनि दशा नहीं हो। यदि कोई क्रिया होती ही न हो तो (कोई दशा ही नहीं हो)। पर्याय अपेक्षा-से सक्रिय और द्रव्य अपेक्षा-से निष्क्रिय है।

.. द्रव्य शून्य नहीं है। जागृतिवाला है और कार्यवाला है। द्रव्य अपेक्षा-से निष्क्रिय। अपना स्वभाव उसमें रहता है। ऐसा नित्यरूप ध्रुव रहता है, वह निष्क्रिय है। पर्याय अपेक्षा-से कार्यवाला है।

.. तो उसे ज्ञान कैसे कहें? आनन्द आनन्दरूप कार्य न लावे तो वह आनन्दका गुण कैसे कहें? ज्ञानका जाननेका कार्य यदि ज्ञान न करे तो उसे ज्ञान कैसे कहें? आनन्द आनन्दका कार्य, शान्ति शान्तिका कार्य न करे तो वह शान्ति और आनन्दका लक्षण कैसे कहें? यदि किसी भी प्रकारकी क्रिया ही नहीं होती हो द्रव्यमें तो जाननेका कार्य भी न हो और शान्तिका कार्य भी न हो और पुरुषार्थ पलटनेका कार्य न हो, तो कोई कार्य ही न हो, सर्वथा निष्क्रिय हो तो।

दो पारिणामिक भाव नहीं है, पारिणामिकभाव तो एक ही है। पारिणामिकभाव अनादिअनन्त द्रव्यरूप जैसा है वैसा, एकरुप ध्रुवरूप द्रव्य रहता है, वह पारिणामिकभावरूप, अपने स्वभावरूप पारिणामिकभाव रहता है। वह पारिणामिकभाव है। और पर्यायमें जिसमें उपशम या क्षायिक ऐसी अपेक्षा लागू नहीं पडती, इसलिये वह पर्यायरूप ऐसा कहनेमें आता है। .. अपेक्षा-से और पर्याय भी पारिणामिकभावकी अपेक्षा-से। ध्रुवरूप एकसरीखा रहता है, इसलिये परमपारिणामिकभाव। और पर्याय भी पारिणामिकभावरूप है। जिसमें उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक ऐसी अपेक्षा लागू नहीं पडती। इसलिये उसे ऐसी पर्याय कहनेमें आती है।

मुमुक्षुः- .... भूमिका किसे कहते हैं?

समाधानः- स्वभावकी लगन अन्दर लगनी चाहिये कि मुझे स्वभाव चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। उसके लिये उसकी धून, लगनी, विचार, वांचन, उसकी महिमा लगे, बाहर सब रस ऊतर जाय, बाहरमें जो तीव्रता हो वह सब मन्द पड जाय। बाहरका लौकिक रस उसे मन्द पड जाय। एक अलौकिक दशा प्राप्त (हो)। अलौकिक महिमारूप आत्मा है। लौकिक कार्यका रस उसे मन्द पड जाय। उसमें खडा हो, लेकिन सब मन्द पड जाता है। उसका रस, विभावका सर्व प्रकारका रस उसे मन्द पड जाता है।

शुभभावमें उसे देव-गुरु-शास्त्र होते हैं और शुद्धात्मामें एक आत्मा। शुद्धात्मा कैसे प्राप्त हो? जो भगवानने प्राप्त किया, जो गुरुदेवने साधना की और जो शास्त्रमें आता है, उस पर उसे भक्ति आती है। शुभभावमें वह होता है और अंतरमें शुद्धात्मा कैसे


PDF/HTML Page 1818 of 1906
single page version

प्राप्त हो, वह होता है। बाकी सब रस उसे ऊतर जाता है। एक आत्मार्थका प्रयोजन (होता है)। मुझे कैसे आत्माकी प्राप्ति हो? प्रत्येक कार्यमें उसे वह प्रयोजन होता है। शुभभाव आये, देव-गरु-शास्त्रकी भक्ति (आये)। बाकी सब उसे मन्द पड जाता है। शुभभाव तो शुद्धात्मा प्राप्त हो तो भी आते हैं, परन्तु उसका भेदज्ञान वर्तता है। भेदज्ञान हो तो भी शुभभाव होते हैं। परन्तु वह अपना स्वभाव नहीं है। शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो? शुद्धात्माकी भावना, उसकी लगन, उसकी महिमा, उसके लिये विचार, वांचन सब होता है। दूसरा सब रस कम हो जाता है। एक देव-गुरु-शास्त्र तरफकी शुभभावना रहती है और आत्मा कैसे प्राप्त हो, उस तरफकी लगन रहती है।

मुमुक्षुः- अनुभूति दशाका अंतरंग स्वरूप कैसा होता है?

समाधानः- अंतरंग तो वाणीमें आता नहीं। विकल्प छूटकर अंतरमें जो वेदन हो, वह तो स्वयं अनुभव कर सकता है। जिसमें अकेला आत्मा ही है। विकल्प तरफका उपयोग छूट जाता है, विकल्प छूट जाता है। वीतराग नहीं हुआ है इसलिये अबुद्धिपूर्वक होता है। बाकी अंतर्मुहूर्तमें उपयोग फिर-से बाहर आता है। क्षणभरके लिये उपयोग अपनेमें जम जाता है। जो स्वरूप अपना अस्तित्व चैतन्यका है, ज्ञायकका अस्तित्व है उसमें उसका उपयोग जम जाता है। चैतन्य जिस स्वभाव-से है, अनन्त गुण-से भरपूर और आनन्द-से भरा हुआ आत्मा, आनन्द गुण स्वयंसिद्ध उसीका है। ज्ञानगुण उसका है, ऐसे अनन्त गुण-से भरा हुआ आत्मा, उसमें उसका उपयोग लीन हो जाता है, विकल्प छूट जाता है। विकल्पकी आकुलता छूटकर उसका उपयोग स्वरूपमें जम जाता है।

स्वानुभूति तो वचनमें (आती नहीं), वह स्वयं वेदन करके जान सकता है। वचनमें तो अमुक प्रकारसे आता है। उसकी दिशा पूरी बदल जाती है। जो विभावकी बाहरकी दिशा थी, वह पलटकर स्वभावकी दिशा कोई अलग ही दुनियामें चला जाता है। वह उसकी स्वानुभूति है। ये विभावकी दुनिया नहीं, ये लौकिक दुनिया नहीं, परन्तु अलौकिक दुनियामें वह चला जाता है और स्वभावमें एकदम लीनता हो जाती है। उसमें जो उसका स्वभाव है, उस जातकी परिणति हो जाती है, वह उसे अनुभूतिमें वेदनमें आती है और वह उसे जान सकता है, अनुभव कर सकता है। आनन्दसे भरा, ज्ञानसे भरा, चैतन्य चमत्कार देव, चमत्कारी देव स्वयं विराजता है। उसकी उसे स्वानुभूति होती है।

मुमुक्षुः- जो कुछ कह सको वह आप कह सकते हो। बाकी उसका अंतरंग स्वरूप तो...

समाधानः- अमुक प्रकार-से आये। विकल्प छूटकर निर्विकल्प दुनियामें चला जाता है। और उसमें अपना जो चैतन्यका अस्तित्व है, वह उसे स्वानुभुतिमें आता है। अनन्त गुणका भण्डार आत्मा है, वह उसे स्वानुभूतिमें आता है। जैसे सिद्ध भगवान हैं, वह


PDF/HTML Page 1819 of 1906
single page version

सिद्ध भगवानका अंश उसे स्वानुभूतिमें आता है। उसकी दिशा पलट जाती है, उसकी परिणति पलट जाती है। स्वसन्मुख होकर स्वरूपमें जम जाता है। अनुपम गुणका भण्डार, अनुपम आनन्द-से भरा आत्मा, उस अनुपम आनन्दका वेदन करता है। जगतकी विभावदशामें जो आनन्द नहीं है, विभावदशामें जो ज्ञान है वह आकुलतायुक्त ज्ञान है। स्वयं निराकुल स्वरूप आत्मा और अनुपम आनन्द-से भरा, ऐसे आत्माका वह वेदन करता है।

मुमुक्षुः- निर्विकल्प ध्यानका स्वरूप और ये दोनों एक ही है? निर्विकल्प ध्यानका स्वरूप कहो या अंतरंग अनुभूतिस्वरूप कहो, (दोनों एक ही है)?

समाधानः- दोनों एक ही है। निर्विकल्प ध्यान यानी स्वरूपकी स्वानुभूति है।

मुमुक्षुः- दृष्टिका विषय जो है वह तो शुद्ध-अशुद्ध पर्याय रहित सामान्य द्रव्य स्वभाव है। जबकि ज्ञानका विषय सामान्य-विशेष तथा सर्व पहलूसे आत्माको जानना है। अब, जितना ज्ञानका विषय सामान्य पहलू है, उतना तो दृष्टिका विषय है ही। फिर भी दृष्टि सम्यक हो तभी ज्ञान सम्यक हो, ऐसा क्यों?

समाधानः- ज्ञानका विषय है। परन्तु दृष्टि है वह भेदमें रुकती नहीं, एक सामान्य पर ही दृष्टिको स्थापित कर दी है। उसका जोर एक सामान्य पर ही है। ज्ञान सामान्य और विशेष दोनोंको जानता है। जाननेमें भेद आते हैं। दृष्टिमें एक सामान्यका जो बल आता है, ऐसा बल ज्ञानमें नहीं है। दृष्टि बलवान है। एक सामन्यको ग्रहण करती है, एकको ग्रहण करनेवाली है। उस एक पर ही जोर करके आगे बढती है।

चैतन्य जो सामान्य अनादिअनन्त है वह मैं हूँ। उसमें भेद पर उसकी नजर नहीं है, पर्याय पर नजर नहीं है, गुणभेद पर नजर नहीं है। एक सामान्य चैतन्यका अस्तित्व जो ज्ञायक, वह मैं हूँ। उस पर दृष्टिका बल, जो सामर्थ्य है वैसा बल ज्ञानमें नहीं है। ज्ञान जाननेका कार्य करता है। सामान्य और विशेष दोनोंका जानकर, जैसा ज्ञान हो वैसी उसकी परिणति होती है। ज्ञान यथार्थ हो तो परिणति यथार्थ होती है। परन्तु दृष्टि अधिक बलवान है। दृष्टिमें बल है। पूरे सामान्यको ग्रहण किया है इसलिये।

मुमुक्षुः- मूल्यवान दृष्टि है?

समाधानः- मूल्यवान दृष्टि है।

मुमुक्षुः- दृष्टि जो काम करती है वह ज्ञानमें ज्ञात होता है।

समाधानः- ज्ञानमें ज्ञात होता है, परन्तु दृष्टि बलवान और जोरदार है। एक पर स्थापित करके उस अनुसार उसकी परिणति, लीनता होती है। आदमीने एक नक्की किया हो कि ऐसा करना है। एकके सिवा दूसरा कुछ देखे नहीं और दृढतासे वह कार्य करता है। वैसे यह एक (कार्य दृष्टि करती है)। फिर बीचमें जो सब भेद और प्रकार है, उस पर दृष्टि नहीं देकर एक सामान्य, एक आत्माको (ग्रहण करती है)। बस,


PDF/HTML Page 1820 of 1906
single page version

आत्माकी परिणति कैसे प्रगट हो? उस बसपूर्वक दृष्टिकी परिणति होती है। आदमीने निर्णय किया कि यह एक ही (करना है)। आजुबाजुका कुछ नहीं, एक ऐसा ही करना है। वैसे उसके बल-से लीनताका और चारित्रका बल उसमें आता है।

मुमुक्षुः- ज्ञान भी वही बल करेगा न? ज्ञानमें भी वैसा ही बल होना चाहिये न?

समाधानः- ज्ञानमें बल है। ज्ञानमें सब जाननेमें आता है। ज्ञानमें बल आता है, दृष्टिमें बल आता है, परन्तु दृष्टिका बल अधिक आता है। अधिक है। ज्ञान सब पहलूको जानता है, जाननेका कार्य सब पहलूओंमें होता है कि यह अधूरा है, यह पूरा है, यह केवलज्ञान है, यह साधकदशा है, यह चारित्र है, ये गुणभेद है, ये पर्यायभेद है। ज्ञान सब जानता है, ये एक अखण्ड है। अखण्डका बल है ज्ञानमें, परन्तु वह सब जानता है। लेकिन जिसने एक ही ग्रहण किया है, ऐसी दृष्टि बलवान है।

मुमुक्षुः- अकारण पारिणामिक द्रव्य और केवलज्ञानमें सर्व पदाथाकी पर्याय उत्कीर्ण हो गयी है, इन दोनोंका मेल कैसे करना?

समाधानः- अकारण पारिणामिक द्रव्य, वह तो स्वतःसिद्ध जो अनादिअनन्त द्रव्य पारिणामिक स्वरूप है। स्वभाव जो है अनादिअनन्त स्वभावरूप है वह पारिणामिक स्वरूप है। और केवलज्ञान तो प्रगट पर्याय है। उसमें तो सामान्य पारिणामिक स्वभाव सामान्य रूप-से अनादिअनन्त कि जिसमें कोई भेद नहीं पडते, ऐसा पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है। केवलज्ञान है वह प्रगट पर्याय है, लोकालोकको जानती है। निर्मल पर्याय केवलज्ञानकी लोकालोकको जानती है। भले उसे क्षायिक पर्याय कहते हैं, उसमें पारिणामिक साथमें है, परन्तु क्षायिक पर्याय कहते हैं, केवलज्ञानकी पर्याय है। पारिणामिकभाव तो अनादिअनन्त है और क्षायिक पर्याय केवलज्ञानकी पर्याय बादमें प्रगट होती है। वह अनादिअनन्त नहीं होती। ये तो अनादिअनन्त है, पारिणामिकभाव है।

निगोदमें गया तो भी पारिणामिकभाव तो अनादिअनन्त है। पारिणामिकभावरूप जो चैतन्य है, वह अनादिअनन्त है। और केवलज्ञान तो उसमें शक्तिरूप है। पुरुषार्थकी साधना- से केवलज्ञान प्रगट होता है। वह क्षायिक पर्याय है। वह लोकालोकको जानती है। स्वरूपमें वीतराग दशा हो गयी इसलिये उसका ज्ञान पूर्ण प्रगट हो गया। स्वरूपमें रहकर, स्वभावको जानता हुआ, लोकालोककी सर्व पर्यायें उसमें सहज ज्ञात होती है। वह उसकी प्रगटरूप-से सादिअनन्त पर्यायें प्रगट होती है। पारिणामिकभाव है वह तो अनादिअनन्त है।

मुमुक्षुः- पूछनेका प्रश्न यह था कि अकारण पारिणामिक द्रव्य यानी स्वतंत्र द्रव्य है या जैसे परिणाम करना चाहे वैसा स्वयं कर सकता है? उसका और केवलज्ञानका दोनोंका मेल कैसे है?

समाधानः- जैसा भाव करने हो वैसे कर सकता है। अकारण-उसमें कोई कारण


PDF/HTML Page 1821 of 1906
single page version

नहीं लागू पडता। केवलज्ञानमें भी कोई कारण नहीं है। वह जो भाव करे उसमें कोई कारण लागू नहीं पडता। सब अकारणरूप-से परिणमते हैं।

मुमुक्षुः- केवलज्ञानीने जाना हो वैसा हो न। अकारण पारिणामिक कैसे रहा? अकारण पारिणामिक द्रव्य स्वतंत्र है और केवलज्ञानीने जाना हो वैसे परिणमे तो बँध गया।

समाधानः- केवलज्ञानीने जाना... केवलज्ञानीने इसलिये कहीं बँध नहीं गया। वह तो स्वतः परिणमता है। केवलज्ञानमें ऐसा ही ज्ञात हुआ है। केवलज्ञानीने जाना इसलिये स्वयं परिणमन न कर सके ऐसा नहीं है। स्वयं तो स्वतंत्र परिणमता है। केवलज्ञान उसे रोकने नहीं आता। केवलज्ञान केवलज्ञानमें है और स्वयं अपनेमें है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। केवलज्ञानीने जाना इसलिये वैसे परिणमना ही पडे, ऐसे द्रव्य कहीं पराधीन नहीं हो गया। केवलज्ञानने जाना इसलिये स्वयं उसके अधीन हो गया, ऐसा कुछ नहीं है। स्वयं स्वतंत्र परिणमता है। अपनी परिणति अपने-से होती है, केवलज्ञान उसे परिणमन नहीं करवाता। अपनी परिणति, कैसा परिणमन करना वह अपने हाथकी बात है।

स्वयं स्वभाव तरफ परिणमे, विभाव तरफ जाता है, वह सब अपनी परिणति तो स्वतः बदलता है। इसलिये पुरुषार्थ-से पलटना वह अपने हाथकी बात है। केवलज्ञानने जाना इसलिये उसके हाथमें है, ऐसा नहीं है। केवलज्ञानने जाना इसलिये उसके हाथमें है, ऐसा नहीं है। वह जिस स्वरूप पलटता है, वैसा केवलज्ञान जानता है। भले केवलज्ञानमें पहले-से ज्ञात हुआ हो, परन्तु पलटता है वह स्वयं अपने-से पलटता है। केवलज्ञानने जाना इसलिये वैसे ही परिणमना पडे, ऐसा उसका अर्थ नहीं है।

भले केवलज्ञानमें ज्ञात हुआ कि यह परिणमन ऐसे होगा। तो भी स्वयं ही परिणमता है। अपने पुरुषार्थकी गति-से स्वयं परिणमता है। स्वयं ऐसा माने के केवलज्ञानमें जैसा जाना वैसा होगा। ऐसा जो मानता है, उसका पुरुषार्थ उठता नहीं। जो ऐसा माने कि जैसे होना होगा वैसे होगा, उसका पुरुषार्थ (उठता नहीं)। पुरुषार्थपूर्वक जिसके ख्यालमें ऐसा रहता है कि मुझे पुरुषार्थ करना है, मुझे चैतन्यकी दशा प्रगट करनी है, ऐसी जिसे भावना रहे उसे ही केवलज्ञान और सब सुलटा जाना है। जिसके भावमें ऐसा रहे कि जैसे होना होगा वैसे होगा, उसकी परिणति केवलज्ञानीने वैसी ही जानी है।

जो परिणति पलटती है, उसे पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। पुरुषार्थके सम्बन्ध बिना वह ऐसा माने कि पुरुषार्थ हो या न हो, ऐसे ही पलट जायगी। जो सहज परिणति प्रगट होती है अकारणरूप-से, वह पुरुषार्थपूर्वक पलटती है। उसे पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। क्रमबद्ध और पुरुषार्थ दोनोंको सम्बन्ध है। अकेला क्रमबद्ध (नहीं है)। क्रमबद्धको पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। पुरुषार्थ बिना क्रमबद्ध नहीं होता, वह सम्बन्धवाला है।


PDF/HTML Page 1822 of 1906
single page version

और जो पुरुषार्थ पर दृष्टि रखकर पलटता है, उसका केवलज्ञानीने ऐसा देखा है कि इसका सुलटा पलटना होगा, ऐसा जाना है। और जो पुरुषार्थ नहीं करता है, उसका वैसा जाना है। वह जाने इसलिये स्वयं पलट न सके ऐसा नहीं है। वह पुरुषार्थ- से पलटेगा ऐसा केवलज्ञान जानता है। यह जीव पुरुषार्थ-से इस प्रकार पलटेगा ऐसा केवलज्ञानी जानते हैं।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!