Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 6.

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ट्रेक-००६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- साक्षात ज्ञानीकी वाणी ... आडियो यानी टेपमें जो वाणी है अथवा टी.वी.में-विडीयोमें वाणी हो, वह सम्यग्दर्शनमें निमित्त हो, उसे साक्षात कह सकते हैं?

समाधानः- नहीं कह सकते। परन्तु पहले जो वाणी स्वयंने साक्षात सुनी हो, साक्षात सत्पुरुषसे-गुरुदेवकी वाणी स्वयंने साक्षात पहले सुनी हो वह स्वयंको असर करे, उसके साथ मिलान करे। लेकिन अनादिसे सर्वप्रथम जिसे सत्पुरुष मिले नहीं, अनादि कालमें सर्वप्रथम टेपमें सुने, वह असर (और) साक्षातकी असर अलग होती है।

मुमुक्षुः- उसे साक्षात नहीं कह सकते।

समाधानः- साक्षात नहीं कह सकते। साक्षात चैतन्यमूर्तिकी वाणी नहीं कह सकते। स्वयं साक्षात एक बार सुना हो, उसके बाद वह सब असर करता है।

मुमुक्षुः- अर्थात एकबार सत्पुरुषका साक्षात...

समाधानः- साक्षात जिनेन्द्रदेव अथवा सत्पुरुष, कोई भी उसे मिलने चाहिये। एकबार साक्षात मिले और अन्दर संस्कार पड जाये, फिर सब असर करता है।

मुमुक्षुः- ऐसा क्यों है? माताजी! ऐसे देखे तो विडीयोमें अथवा टेपमें तो वही वाणी है, वही .. है, फिर भी इतना अंतर क्यों है?

समाधानः- चैतन्यमूर्ति उसमें नहीं है। चैतन्यदेव बिराजे और उसमें जो वाणी आये, उस वाणीकी असर कोई अलग होती है। उनकी मुद्रा, उनके भाव, वे कहाँ- से कहते हैं, किसप्रकार भेदज्ञानसे आत्माकी कोई अपूर्वता दर्शाते हैं, यह उनकी मुद्रा एवं भाव आदि सबके उसे दर्शन हो, वह दिखायी दे और उसमेंसे सुनकर जो असर होती है, वह असर अलग होती है। देशनालब्धि होती है वह साक्षात सत्पुरुषसे प्राप्त होती है।

मुमुक्षुः- सामने प्रत्यक्ष चैतन्य होना चाहिये।

समाधानः- प्रत्यक्ष चैतन्य होना चाहिये।

मुमुक्षुः- निर्विकल्प दशामें जो आनन्द होता है और सविकल्प दशामें जो शान्तिका वेदन होता है, तो आत्मा तो अतीन्द्रिय है, फिर भी उसमें आप जो भेद करते हो उसमें किसप्रकार निर्विकल्प दशाके कालमें निर्भेल आनन्द है और इसमें शान्ति है?

समाधानः- विकल्प छूटकर जो आनन्द आता है, उस आनन्दमें अकेला आत्मा


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है। कहीं भी (उपयोग नहीं है)। अकेले आत्मामें लीनता है। एक आत्माके सिवा (कहीं उपयोग नहीं हैे)। उसमें जो आनन्दकी परिणति प्रगट होती है वह अलग है। सविकल्प दशामें भेद तो रहता ही है। ज्ञायक स्वयं जो निर्विकल्प (अवस्थाके) कालमें है, वही ज्ञायक सविकल्प दशामें वही ज्ञायक है, साथ-साथ विकल्प है। विकल्प है इसलिये भिन्न रहता है। एकत्वबुद्धिकी आकूलता नहीं है, भिन्न रहता है। भिन्न रहता है, उस अपेक्षासे उसे शान्तिका वेदन रहता है, शान्ति है। मन्द कषायकी शान्ति नहीं, भिन्न रहकर शान्तिका वेदन वेदता है। आत्माका जो अदभूत स्वरूप है, आत्माका अदभूत स्वरूप है वह उसमें प्रगट नहीं है। उसका उघाड है। (निर्विकल्पताके कालमें) उपयोगात्मक है।

मुमुक्षुः- उपयोगात्मक है इसलिये स्पष्ट ख्यालमें आता है।

समाधानः- अन्दर वेदन, एकाग्रताकी लीनता एक आत्मामें ही है, आत्माका ही वेदन कर रहा है, बाहर कहीं भी उसका लक्ष्य ही नहीं है, कहीं भी उपयोग नहीं है। कोई विकल्पमें उपयोग नहीं है, कहीं भी नहीं है। उपयोग एक स्वरूपमें जम गया है। उसका जो स्वरूप है उस स्वरूपमें ही उपयोग जमा है, इसलिये स्वरूपका ही वेदन करता है। जगतसे, सब विकल्पसे भिन्न होकर, विभावके लोकसे भिन्न होकर एक स्वभावलोकमें चला गया है। विभावका लोक है या नहीं, उसका उसे भान भी नहीं है। एक स्वभावमें ही रहता है, स्वभावका ही वेदन है। स्वभावको ही देखता है, स्वभावका ही वेदन करता है, उस समय स्वभावको ही जानता है।

सविकल्प दशामें स्वभावकी ओर परिणति है। स्वभावकी ओर परिणति है, स्वभावकी ओर शान्ति है, स्वभावकी ओर ज्ञायककी धारा है, परन्तु स्वभावमें वैसा लीन नहीं है। विभाव और स्वभाव, दोनों साथमें उसे ज्ञानमें ज्ञात हो रहे हैं। विभाव और स्वभाव दोनोंका ज्ञान होता है। स्वयं भिन्न रहकर जानता है। लेकिन स्वरूपमें उपयोग लीन नहीं हुआ है। उपयोग लीन नहीं हुआ है। लीन नहीं है अर्थात उसका वेदन भी उसप्रकारका नहीं है।

उसमें तो एक ही है-निर्विकल्पदशाका आनन्द और सविकल्पदशाकी (शान्ति) दोनों अलग ही है। शान्ति-वह शान्ति, एकत्वबुद्धिमें मन्द कषायकी शान्ति होती है, उससे ज्ञायकधाराकी शान्ति अलग है। वह मन्द कषायकी शान्ति नहीं है। उसे भिन्नताकी शान्ति है। लेकिन निर्विकल्पदशाका आनन्द और वह शान्ति दोनों अलग है। गृहस्थाश्रममें हो तो भी ऐसा है और चारित्रदशा बढे तो मुनिदशामें भी बाहर आये तो निर्विकल्पदशा अलग है और सविकल्पदशा, दोनों दशा ही अलग है। दोनोंमें अन्तर है। मुनिदशामें कुछ अलग हो जाता है, ऐसा भी नहीं है।


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सविकल्पदशामें उपयोग बाहर विकल्पकी ओर आया, तो ज्ञायककी परिणति, चारित्रसहितकी परिणति है। मुनिको विशेष चारित्र है। उन्हें सविकल्पताके कालमें भी अमुक कषायका नाश हो गया है, लीनताका एकदम जोर वर्तता है, तो भी उपयोग बाहर है। उपयोग स्वरूपमें लीन हो (तब तो) स्वयं स्वरूप चैतन्यलोकमें चला गया। उसका वेदन ही एक चैतन्यकी ओर है। बाहर विभावकी ओर...

केवलज्ञानीकी बात अलग है। स्वयं स्वरूपमें लीन हो गये, उपयोग जम गया, ज्ञानकी ऐसी निर्मलता (प्रगट हो गयी)। सब विकल्प छूट गये, अबुद्धिपूर्वकका भी सब छूट गया, इसलिये सहजपने लोकालोकका ज्ञान होता है। तो भी स्वयं निर्मलपने स्वयंमें लीन हैं। उसमें उनका अदभूत आनन्द तो वैसा ही रहता है। लोकालोक ज्ञात हो तो भी रहता है। उन्हें लोकालोक नुकसान नहीं करता।

... और रागका कर्ता अनादिसे मानता है। कौन करवाता है? स्वयं करता है। स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे स्वयं करता है। पुदगल निमित्त है और रागकी पर्याय, अशुद्ध पर्याय स्वयं एकत्वबुद्धिसे अनादिसे कर रहा है। पर पुदगल उसे नहीं करवाता। स्वयं करता है।

मुमुक्षुः- होता तो है जीवके परिणाममें?

समाधानः- हाँ, जीवके परिणाममें होता है।

मुमुक्षुः- पुदगलद्रव्य उसका निमित्त है?

समाधानः- पुदगलद्रव्य निमित्त है। जीवके परिणाममें राग होता है।

मुमुक्षुः- दृष्टान्तमें ऐसा ले कि लाल रंग फूलका स्वभाव है और स्फटिकमणिमें वह झलकता है।

समाधानः- झलकता है, परन्तु स्फटिककी योग्यतासे झलकता है। स्फटिककी योग्यतासे (झलकता है)। लाल और हरे फूल है, उसका जबरजस्ती प्रतिबिंब नहीं झलकता। (यदि ऐसा हो तो) दूसरी वस्तुमें भी होना चाहिये, लोहेमें अथवा दूसरी वस्तुमें नहीं होता। जिसका स्वभाव प्रतिबिंबरूप झलकनेका है, जिसकी योग्यता है उसमें वह होता है। इसलिये जीवमें वैसी पुरुषार्थकी मन्दता है तो स्वयं वैसी मन्दतासे रागरूप परिणमता है।

जड राग और चैतन्य राग, ऐसे उसके दो भेद हैं। जीवक्रोध और जडक्रोध, ऐसा कहनेमें आता है। पुदगल, क्रोधरूप कदापि नहीं होता। लेकिन उसे जडक्रोध और जीवका क्रोध कहनेमें आता है। चैतन्यमें भी क्रोध होता है, जडक्रोध, ऐसे उसके दो भेद है। शास्त्रमें आता है।

मुमुक्षुः- समयासरमें आता है, रागी तो पुदगल है, व्यवहारसे जीवके परिणाम


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कहनेमें आता है।

समाधानः- रागी पुदगल है अर्थात जीवका स्वभाव राग नहीं है। रागी पुदगल है यानी राग एकान्तसे पुदगल है ऐसा नहीं है। एकान्तसे पुदगल ही राग है और जीवका कुछ है ही नहीं, ऐसा नहीं है। व्यवहार यानी जीव कुछ करता ही नहीं है और एकान्तसे शुद्ध ही है, तो फिर उसे मोक्ष-केवलज्ञान होना चाहिये, उसे शुद्धताका वेदन होना चाहिये। शुद्धताका वेदन तो है नहीं। द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध है परन्तु पर्यायमें रागकी परिणति स्वयं करता है। द्रव्यदृष्टिसे ऐसा कहनेमें आता है कि राग है वह पुदगल है। रागको जड कहा, द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे। परन्तु पर्याय अपेक्षासे जीवमें-चैतन्यमें वह परिणति- रागकी परिणति होती है। पर्याय अपेक्षासे पर्याय है ही नहीं ऐसा नहीं है। अशुद्ध पर्याय होती ही नहीं हो तो शुद्धताका वेदन होना चाहिये। शुद्धताका वेदन तो है नहीं। इसलिये पर्यायदृष्टिसे जीव स्वयं रागका कर्ता होता है। अज्ञान अवस्थासे।

मुमुक्षुः- मैं प्रतिसमय जाणन.. जाणन.. जाणन.. स्वभावी हूँ, वहाँ तक पकडमें आता है, फिर आगे पकडमें नहीं आता। मैं जाननेवाला हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, इतना बुद्धिपूर्वक विचार हो सकता है कि जो जाननेवाला है, इस विकल्पके पीछे जो जाननेवाला ज्ञान है, यहाँ तक विचार होता है, फिर आगे नहीं चलता।

समाधानः- जाननहारमें ही सब भरा है। ज्ञान लक्षण आत्माका असाधारण है। असाधारण लक्षण है यानी उस ज्ञान लक्षण द्वारा आत्मा पहचानमें आता है। लेकिन उस ज्ञायक लक्षणमें, उस लक्षणसे ज्ञायक पहचानमें आता है। ज्ञायक अदभुत स्वरूप है, ज्ञायक अनन्त गुणसे भरा अदभुत स्वरूपी ज्ञायक है। ज्ञान लक्षण उसे वास्तविक ग्रहण हो तो उसे ज्ञायककी महिमा आये बिना नहीं रहती। ज्ञानलक्षण यथार्थरूपसे ग्रहण होना चाहिये। स्वयं विचारसे नक्की करे कि यह ज्ञानलक्षण है, यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ, ये शुभाशुभ विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। पुरुषार्थकी मन्दतासे चैतन्यमें होता है, लेकिन वह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो जो ज्ञायक जाननेवाला है वही मैं हूँ।

उसे पहचानकर अन्दरसे यथार्थ प्रतीति होवे, अन्दरसे पहचानकर आये तो ज्ञायककी महिमा आये बिना नहीं रहती। ज्ञायक अदभुत महिमासे भरा है। उसकी प्रतीति करके मैं ज्ञानलक्षण हूँ, यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, ऐसी निःशंकरूपसे प्रतीति आये तो उसका भेदज्ञान हो। तो उसका भेदज्ञान निरंतर वर्ते कि यह विकल्प मैं नहीं हूँ, लेकिन मैं यह ज्ञायक हूँ। ज्ञायकका जोर बढता जाये तो उसमें विकल्प टूटकर स्वानुभूति हो तो उसे चैतन्यस्वरूप अनुभवमें आये। उसकी यथार्थ प्रतीति होनी चाहिये।

ज्ञानलक्षणसे यथार्थ लक्षणसे लक्ष्य पहचानमें आना चाहिये। वह लक्षण गुणमात्र नहीं,


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वह लक्षण भेदरूप नहीं, परन्तु जो ज्ञायक है उस लक्षण द्वारा पूरा ज्ञायक पहचाननेमें आना चाहिये कि ज्ञायक है वह मैं हूँ, पूर्ण द्रव्य है वह मैं हूँ।

मुमुक्षुः- आपने तो बहुत दिया है, परन्तु वहीं उलझन होती है।

समाधानः- वहाँसे आगे बढना चाहिये। लक्षण है वह गुणमात्र नहीं है, परन्तु पूरा गुणी है वह मैं हूँ, पूर्ण अस्तित्व-ज्ञायकका अस्तित्व है वही मैं हूँ, यह लक्षण है उतना नहीं, परन्तु मैं पूर्ण ज्ञायक, एक ज्ञायक अस्तित्व, पूर्ण ज्ञायकसे भरा ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञायकसे परिपूर्ण ऐसा द्रव्य है वही मैं हूँ। ऐसी वस्तु जो गुण-पर्याययुक्त है, वह वस्तु ही मैं हूँ। ऐसे वस्तुके अस्तित्व पर उसका जोर आना चाहिये।

मुमुक्षुः- विचारपूर्वक?

समाधानः- हाँ, विचारपूर्वक नक्की करके फिर प्रतीतिका जोर आना चाहिये। उसे अंतरसे लक्ष्य ग्रहण होना चाहिये।

मुमुक्षुः- आगे नहीं बढा जाता उसमें स्वयंके पुरुषार्थकी (कमी है)?

समाधानः- स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दता है। स्वयंको उतनी जिज्ञासा, तैयारी हो तो आगे बढ सकता है। विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं चैतन्य हूँ, कोई अदभूत स्वरूपी हूँ, अनन्त गुणसे भरा चैतन्य ज्ञायक, चैतन्यमूर्ति मैं हूँ, ऐसी महिमा आये, अन्दर उसकी जिज्ञासा जागृत हो, प्रतिक्षण उसकी भावना जागृत होती रहे तो आगे बढे, पुरुषार्थ करे। प्रतिक्षण उसे ज्ञायकका जोर आना चाहिये। प्रतिक्षण। ये जो विकल्प आते हैं, वह मैं नहीं हूँ, मैं तो ज्ञायक हूँ। उसे प्रतिक्षण प्रत्येक कार्यमें ज्ञायक हूँ, ज्ञायककी महिमापूर्वक ज्ञायक आना चाहिये, मात्र बोलनेरूप नहीं। प्रथम विचारसे आये लेकिन उसे महिमापूर्वक मैं तो ज्ञायकदेव हूँ, मैं यह नहीं हूँ। ज्ञायककी महिमापूर्वक अन्दरसे प्रतीतिका जोर आना चाहिये। ऐसा पुरुषार्थ करे तो होता है।

मुमुक्षुः- ऐसा पुरुषार्थ करनेपर निर्विकल्पदशा प्रगट होती है?

समाधानः- पुरुषार्थ करे तो होती है। अन्दरसे उतनी लगन लगनी चाहिये। दिन- रात उसके पीछे पड जाये, दिन-रात मुझे ज्ञायकदेव कैसे पहचानमें आये? मुझे चैतन्यदेव कैसे पहचानमें आये? बाहर कहीं चैन नहीं पडे, विभावमें कहीं भी सुख नहीं लगे। सुख मेरे आत्मामें ही है। ऐसा बारंबार पुरुषार्थ करता रहे। उसकी लगनी लगे कि यह ज्ञायक है वही मैं हूँ, अन्य कुछ भी मैं नहीं हूँ। ज्ञायककी प्रतीतिका बारंबार जोर आये तो होता है।

मैं ज्ञायक शुद्धात्मा हूँ। उसके साथ जो विभावकी अशुद्ध पर्याय होती है वह मेरा स्वरूप नहीं है। पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। होता है मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे, कोई पुदगल नहीं करवाता, लेकिन मैं उससे भिन्न द्रव्य-शुद्धात्म द्रव्य हूँ। बारंबार उसका पुरुषार्थ


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चले तो भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, स्वानुभूति प्रगट हो, ज्ञाताधारा प्रगट हो तो भी उसे अल्प अस्थिरता बाकी रहती है। वह पुरुषार्थकी मन्दतासे (रहती है)।

द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे, जो समयसारमें आता है कि (राग) आत्माका नहीं है, वह द्रव्यदृष्टिके जोरसे (कहा है)। लेकिन अमृतचंद्राचार्य कहते हैं न कि मैं इस समयसारकी टीका रचता हूँ। मैं द्रव्यदृष्टिसे तो शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, लेकिन अनादिसे मेरी परिणति कल्माषित मैली हो रही है, उसकी शुद्धि होओ, ऐसा कहते हैं। वह परिणति स्वयंकी है और स्वयं पुरुषार्थ द्वारा सिद्धि हो, ऐसी भावना भाते हैं। मैं तो द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, परन्तु पुरुषार्थ द्वारा मेरी शुद्धि प्राप्त होओ, आचार्यदेव ऐसी भावना भाते हैं।

अल्प अस्थिरता है, मुनिकी दशा है तो भी ऐसा कहते हैं कि अभी भी अल्प अस्थिरता है। संज्वलनका इतना कषाय है वह भी पुसाता नहीं। उससे छूटकर केवल वीतरागदशा कैसा प्राप्त हो, उसकी भावना भाते हैं। पुनः द्रव्यदृष्टिकी बात आये और आचार्यदेवको इतनी अल्प अस्थिरता है उसे भी तोडनेकी बात प्रारंभमें करते हैं। दोनों बात समझमें आये द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतापूर्वक, कहाँ अशुद्धता रहती है, उन दोनोंकी संधि समझकर आगे बढे तो उसकी साधकदशा यथार्थ प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- साधनसंपन्न और सानुकूलतावाले लोग धर्म कर सके और प्राप्त कर सके, परन्तु गरीब हो, दलित हो, जिसे खाने-पीनेका ठिकाना नहीं है, वह इस धर्ममें कैसे शुरूआत कर सके?

समाधानः- सब कर सकते हैं। यहाँ पैसेवाले हो या सानुकूलतावाले हो वही कर सके ऐसा कुछ नहीं है। गरीब भी कर सकते हैं। धर्म तो अंतरमें है। उसे बाह्य सामग्रीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अंतरमें चैतन्यको पहचाने, मेरा चैतन्यद्रव्य कैसा अद्भुत है, उसे पहचानकर अन्दरसे भेदज्ञान करे कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, बाह्य धन तो कहाँ अपना है, उस धनके साथ कहाँ सम्बन्ध है, बाह्य सुख-संपत्तिके साथ उसे कोई सम्बन्ध नहीं है। उससे आत्माका निभाव नहीं होता। आत्मा स्वयं अपनेसे, स्वयंका अस्तित्व अनादिसे रक्षित ही है, वह बाहरसे रक्षित हो ऐसा नहीं है।

आत्मा अनादि-अनन्त है। (आत्महित) तो गरीब भी कर सकता है। प्रत्येकका आत्मा एकसमान है। गरीब भी, यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ, ऐसी एकत्वबुद्धि तोडकर चैतन्यदेव-ज्ञायकदेवकी महिमा लाकर उसकी प्रतीति लाये, स्वानुभूति करे तो गरीब भी कर सकता है। पैसेवाले भी कर सकते हैं, सब कर सकते हैं।

शास्त्र जो कहते हैं, उन्होंने जो मार्ग दर्शाया उसे स्वयं अन्दर ग्रहण करे। शुद्धात्मा भिन्न है, लेकिन उसका मार्ग दर्शानेवाले जिनेन्द्रदेव, गुरु साक्षात चैतन्यमूर्ति दर्शाते हैं,


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उसे स्वयं ग्रहण करे तो मार्ग प्राप्त हुए बिना रहता नहीं। ग्रहण स्वयंको करना है।

मुमुक्षुः- गरीबोंको क्या करना? यहाँ सभी साधनसंपन्न सुखी लोग ही धर्म पालते हैं।

समाधानः- ऐसा कुछ नहीं है। यहाँ साधनसंपन्न लोग पालते हैं ऐसा नहीं है। यहाँ सब साधनसंपन्न लोग ही है ऐसा नहीं है। सब पालते हैं। सोनगढमें तो सभी प्रकारके लोग रहते हैं।

मुमुक्षुः- समवसरणमें तो सभी आते हैं। उत्तरः- सब आते हैं। तिर्यंत भी आते हैं और सब आते हैं। देव भी आते हैं, मनुष्य भी आते हैं, चक्रवर्ती भी आते हैं, निर्धन भी आते हैं और सधन भी आते हैं। निरोगी भी कर सके और रोगी भी कर सके, निर्धन भी कर सके और सब कर सकते हैं।

मुमुक्षुः- मेरे मित्र क्रिश्चियन हैं, उनके समाजमें अग्रणी कार्यकर्ता है। समाधानः- इस कालमें जन्म हुआ, महाभाग्यकी बात है, (गुरुदेवने) बहुत लोगोंको जागृत किये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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