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मुमुक्षुः- हे भगवती माता! पर्यायको अन्दरमें झुका, गुण-गुणीके भेदको तिरोधान करनेका जो उपदेश है, उसमें अंतरमें झुकाना मतलब क्या? और भेदको तिरोधन करनेका अर्थ क्या है? यह कृपा करके समझाइये।
समाधानः- ज्ञायक स्वभावकी प्रतीति दृढ करनी कि मैं यह एक ज्ञायक ही हूँ। यह दूसरा जो स्वरूप है वह मेरा नहीं है। यह शरीर सो मैं नहीं हूँ। यह विभाव मैं नहीं हूँ, वह सब आकुलतारूप है। उससे भिन्न मैं एक ज्ञायक हूँ। उसमें उसे गुण- गुणीका भेद उत्पन्न हो कि यह दर्शन सो मैं, यह ज्ञान सो मैं, यह चारित्र सो मैं, ऐसे एक-एक गुणस्वरूप आत्मा नहीं है, आत्मा तो अखण्ड ज्ञायक है। दर्शनगुण और चारित्र पर उसकी दृष्टि जाती है तो वह गुणभेद है। गुणभेद वास्तविकरूपसे आत्मामें नहीं है। गुणभेद तो एक लक्षणभेद है। एक द्रव्य पर दृष्टि करे और भेदको गौण करे तो ही उसे सच्ची यथार्थ प्रतीति है और तो ही उसे निर्विकल्प दशा होती है।
इसलिये यथार्थ प्रतीति करके उपयोग जो बाहर जाता है, गुण-गुणी भेदमें रुके या चाहे कहीं भी रुके, उस उपयोगको स्वरूपमें झुकाकर स्वरूपमें स्थिर करे। बाह्य ज्ञेयोंको जानने जाये अथवा रागमें अटकता हो, गुण-गुणीके भेदमें अटकता हो, उस उपयोगको स्वयंमें स्थिर करे कि यह चैतन्य है वही मैं हूँ। उसमें कोई भेद पर दृष्टि (नहीं करे)। उसमें लक्षणभेद है, लेकिन वह लक्षणभेद कोई वास्तविक भेद नहीं है। गुणभेद पर दृष्टि करनेसे विकल्प उत्पन्न होता है। इसलिये आत्मामें स्थिर होकर, आत्मामें विश्राम लेकर वह विकल्पसे छूटता है। आत्मा उस भेदको गौण कर देता है। विकल्प जब छूटे तब उपयोग स्वरूपमें स्थिर हो जाय।
लेकिन जिसने आत्माका अस्तित्व ग्रहण किया हो, उसे ही वह विकल्प छूटता है। दूसरे प्रकारसे विकल्प छूटते नहीं। कोई ध्यान करे आत्माको समझे बिना या आत्माको पहचाने बिना, अकेली एकाग्रता करे, आत्माका अस्तित्व ग्रहण किये बिना एकाग्रता करता रहे तो ऐसे ध्यानसे विकल्प छूटता नहीं। ध्यान तो आत्माको पहचानकर, यथार्थपने पहचानकर आत्मामें एकाग्र हो, ज्ञायकको पहचानकर। उसमें गुण-गुणी भेद पर दृष्टि जाती हो तो उसे भी गौण करके जो उपयोग बाहर जाता है, मतिज्ञानका उपयोग
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एवं श्रुतज्ञानका उपयोग द्रव्य-गुण-पर्यायमें रुकता हो तो उसे भी स्वयमें स्थिर करे। उस प्रकारका आश्चर्य भी तोड देता है जाननेके लिये कि यह गुण क्या है, यह पर्याय क्या है या यह द्रव्य क्या है? ऐसे जो विचार रागमिश्रित है, उसमें अटकता हो, दूसरे विकल्पको तो गौण कर दिया, लेकिन ऐसे अटकता हो कि यह द्रव्य है, यह गुण है, यह पर्याय है, अथवा यह द्रव्य कैसा है, यह गुण कैसे हैं, यह पर्याय कैसी है? उसमें विचार अटकते हो और भेद पडते हो, उन सबका आश्चर्य तोडकर, उस क्षण वह सब जाननेके भेदको तोडकर अंतरमें उपयोगको स्थिर करे कि मैं तो जो हूँ सो हूँ।
मैं चैतन्यदेव हूँ, इस प्रकार उपयोगको स्वयंमें स्थिर करे तो उसे गुण-गुणीका भेद गौण होकर विकल्प छूटकर निर्विक्लप दशा होती है। गुण-गुणी भेद परसे दृष्टि छूटकर आत्मामें स्थिर हो तो उसे निर्विकल्प दशा होती है और अंतरमेंसे उसे ज्ञायकदेव प्रगट होते हैं। अंतरमेंसे ऐसा छूट जाता है कि बस, एक ज्ञायक मात्र ज्ञायक, अनन्त गुणसे भरा ज्ञायक, ऐसी निर्विकल्प दशा तो उसे प्रगट होती है।
एक आत्माका अस्तित्व ग्रहण करे तो ही यह होता है। सिर्फ यह छोडा, फिर यह छोडा, ऐसे आत्माको-ज्ञायकको ग्रहण किये बिना, मैंने सब छोडकर सब भेद छोड दिये, परन्तु आत्माको ग्रहण किये बिना, अभेद पर दृष्टि किये बिना, ज्ञायक पर दृष्टि किये बिना, ज्ञायकको ग्रहण किये बिना किसी भी प्रकारका भेद छूटता नहीं। ऐसी एकाग्रता करे परन्तु यदि ज्ञायक ग्रहण नहीं हुआ हो तो वैसा ध्यान करे तो विकल्प छूटते नहीं। लेकिन आत्माको पहचानकर, ज्ञायकको पहचानकर, उसका अस्तित्व ग्रहण करके फिर उसमें स्थिर हो जाय तो उसके विकल्प छूट जाते हैं।
गुरुदेवने यह मार्ग स्पष्ट करके स्वानुभूतिका मार्ग बताया है और उसी मार्गसे कल्याण होता है और यही मार्ग है, मुक्तिका उपाय है। वही एक सुखका उपाय है। सत्य यही है। उसमें कोई नय नहीं रहते हैं। कोई नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, शास्त्रमें आता है। निक्षेप कहाँ चला जाता है, प्रमाण अस्त हो जाता है, वह सब प्रकारका आश्चर्य उसे छूट जाता है। जाननेका कुतूहल छोडकर अंतरमें स्थिर हो जाता है। परन्तु उसकी अंतर्मुहूर्तकी स्थिति है। फिर बाहर आता है तो सविकल्प दशामें उसके विचार आते हैं। क्योंकि पूर्ण वीतराग नहीं हुआ है। सविकल्प दशामें भेदज्ञानकी धारा रहती है, उसके साथ क्षण-क्षणमें ज्ञायककी धारा रहे, उसके साथ यह विकल्प होते हैं। शुभभाव होता है, श्रुतका चिंतवन होता है, पंच परमेष्ठीकी भक्ति, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब विचार होते हैं। परन्तु उससे भिन्न ही रहता है। परन्तु निर्विकल्पताके समय यह सब छूट जाता है और गौण हो जाता है।
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यह मार्ग गुरुदेवने बताया है और उसी मार्गकी जिज्ञासा, लगनी लगाये तो यह हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- ॐ वीतरागाय नमः। परम पूज्य श्री गुरुदेवको कोटि-कोटि वन्दन। प्रशममूर्ति सम्यक रत्नत्रयधारी पूज्य भगवती माताको कोटि-कोटि वन्धन! प्रश्न है-शुद्धनयका विषय अशुभ होने पर भी वह परिपूर्ण है? आत्मामें एक अंश परिपूर्ण होकर रहता हो तो दूसरे अंशको शून्य होना पडे। तो यह बात कृपा करके समझाइये।
समाधानः- गुरुदवने सब स्पष्ट करके द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप बहुत समझाया है। द्रव्यका एक अंश परिपूर्ण होकर रहता है, लेकिन वह शाश्वत अंश है। द्रव्य स्वयं शाश्वत है और पर्याय है वह पलटता अंश है। पलटते अंश पर दृष्टि नहीं होती, परन्तु जो शाश्वत अंश है, द्रव्यका जो शाश्वत भाग है उस पर दृष्टि उसका विषय करती है। और वह परिपूर्ण अर्थात शक्तिसे परिपूर्ण है। प्रगटरूपसे परिपूर्ण नहीं है, शक्तिमें परिपूर्ण है। इसलिये शक्तिसे परिपूर्ण होनेसे उसमें विरोध नहीं आता है। एक पलटता अंश है और एक शाश्वत अंश है। शाश्वत अंश द्रव्य स्वयं है। और पर्याय है वह द्रव्यदृष्टिमें गौण होती है, इसलिये उसमें विरोध नहीं आता है। द्रव्यदृष्टि उसे विषय करती है और ज्ञानमें वह सब जाननेमें आता है।
ज्ञानमें द्रव्य-गुण-पर्याय आदि सब ज्ञानमें ज्ञात होता है। परिपूर्ण अर्थात वह शक्तिरूप परिपूर्ण है। यदि प्रगट परिपूर्ण हो तो उसमें विरोध आता है। प्रगटरूपसे परिपूर्ण नहीं है, शक्तिरूपसे परिपूर्ण है। और वह शाश्वत है इसलिये दृष्टि उसे विषय करती है और शाश्वत अंश पर ही जोर देकर वह आगे बढती है। जो शाश्वत हो उस पर दृष्टि स्थिर होती है। पलटते (अंश) पर दृष्टि स्थिर नहीं होती। दृष्टि पर्यायको गौण करती है और ज्ञानमें वह सब ज्ञात होता है। इसलिये दूसरे अंशको शून्य नहीं होना पडता। वह तो द्रव्यका स्वरूप जो है वह है। द्रव्य-गुण-पर्याय।
द्रव्यदृष्टि उसे विषय करती है। इसलिये वह शक्तिरूपसे परिपूर्ण है। उसमें कोई विरोध नहीं है। उसमें उसे शून्य नहीं होना पडता। दृष्टिका विषय है, श्रद्धा बराबर करती है। जो शाश्वत है उसीके आश्रयसे पर्याय प्रगट होती है। उसे शून्य नहीं होना पडता, बल्कि पर्याय-निर्मल पर्यायें प्रगट होती है। उसका आश्रय लेनेसे निर्मल पर्यायें प्रगट होती हैं। एक श्रद्धा परिपूर्ण द्रव्यको विषय करती है। वह द्रव्यदृष्टि पर्यायको गौण करती है। उसके आश्रयसे पर्याय प्रगट होती है।
जैसे श्रद्धा हो तो भी चारित्र बाकी रहता है, उसमें कोई विरोध नहीं आता है। पहले श्रद्धा परिपूर्ण होती है। द्रव्यदृष्टि परिपूर्ण होती है और चारित्र बाकी रहता है। ऐसा क्रम पडता है। इसलिये उसमें कोई विरोध नहीं आता है। द्रव्यदृष्टिके बलसे आगे
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बढा जाता है और वह शक्तिरूप है। इसलिये उसमें कहीं विरोध नहीं आता है। वस्तुका स्वरूप ही ऐसा है।
.. परिपूर्ण हो गया, श्रद्धा हुयी इसलिये सब परिपूर्ण हो जाय, ऐसा नहीं है। उसमें कोई विरोध नहीं है। ऐसे द्रव्य परिपूर्ण शक्तिरूप है और वह पर्याय पलटता अंश है, उसमें कोई विरोध नहीं है। वह तो वस्तुका स्वरूप ही है। द्रव्यदृष्टिके बलसे आगे बढा जाता है। उसमें चारित्र-लीनता अभी बाकी रहती है। सम्यग्दृष्टि ज्ञाताधाराकी उग्रता करते-करते आगे बढता है। उसमें जब चारित्रकी लीनता होती है तब भूमिका पलटती है और छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान प्रगट होता है। वह सब द्रव्यदृष्टिके बलसे पर्यायें, निर्मल पर्यायें प्रगट होती जाती है। उसमें शून्य नहीं होती, अपितु प्रगट होती है। उसमें उसे शून्य नहीं होना पडता। उसके आश्रयसे केवलज्ञान होता है। सब द्रव्यदृष्टिज्ञके बलसे (प्रगट होता है)। जो शाश्वत अंश है, उसका आश्रय लेनेसे पर्यायें प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- पर्यायमें परिपूर्णता प्रगट होने पर भी शक्तिमें कुछ भी हानि-हानि वृद्धि नहीं होती।
समाधानः- शक्तिमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती। पर्यायमें पूर्ण हो गया, केवलज्ञान होता है तो उसमें शक्तिमें हानी नहीं होती। और विषय परिपूर्ण.. द्रव्यदृष्टिने विषय किया कि मैं पूर्ण हूँ, तो उसमें शक्तिमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती। शक्ति तो, जो उसने श्रद्धा की, द्रव्यदृष्टि की तो उसे शक्तिमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती। वस्तु तो जैसी है वैसी है। उसने उस पर श्रद्धा कि यह मैं शाश्वत द्रव्य हूँ। यह जो विभाव आदि पर्याय होती है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वभाव भिन्न है। ऐसी उसने श्रद्धा की, ऐसा ज्ञान किया, आंशिक लीनता की इसलिये उसमें उसकी शक्तिमें हानि-वृद्धि नहीं होती। वह तो जैसी है वैसी है। अनादिअनन्त शाश्वत जो वस्तु है वैसी है। परिपूर्ण है। उसमें कोई हानि-वृद्धि नहीं होती।
मुमुक्षुः- पर्यायकी परिपूर्णता कहाँ-से आती है?
समाधानः- परिपूर्णता आती है, द्रव्यका आश्रयसे आती है। लेकिन वह तो पर्यायकी परिपूर्णता है। द्रव्य तो अनन्त पडा ही है। पर्यायमें परिपूर्णता होती है। जैसा स्वभाव हो, वैसी पर्याय प्रगट होती है। पर्याय तो पलटती रहती है और द्रव्य तो शाश्वत है।
मुमुक्षुः- पदार्थमें ऐसे दो भिन्न-भिन्न अंश है? एक वैसाका वैसा रहे और एकमें फेरफार होता रहे?
समाधानः- दोनो भिन्न अंश (हैं)। हाँ, एकका स्वभाव भिन्न है कि जो शाश्वत है। द्रव्य शाश्वत है और पर्याय पलटती रहती है। ऐसे दो भाग यानी बिलकुल दो भिन्न-भिन्न भाग नहीं है। वह द्रव्यका ही स्वरूप है। द्रव्य-गुण-पर्याय द्रव्यका ही स्वरूप
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है। उसके स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं। एक शाश्वत रहनेवाला है और एक पलटता है। ऐसे अनन्त गुण-पर्यायसे भरा आत्माका स्वरूप है। एक स्वरूप नहीं है। एक स्वरूप हो तो श्रद्धा हो तो साथमें सब हो जाना चाहिये। श्रद्धाके साथ चारित्र, केवलज्ञान आदि सब श्रद्धाके साथ (हो जाना चाहिये)। सब एक ही जातका एक ही हो तो। अनन्त गुणसे भरा आत्मा है, अनन्त। पर्यायकी शुद्धि बाकी रह जाती है।
मुमुक्षुः- एक ही समयमें पूरा द्रव्य शुद्ध है और पूरेमें अशुद्धिका भाव है, ऐसा है?
समाधानः- एक ही समयमें अशुद्धि पूरे द्रव्यमें (नहीं है)। द्रव्यदृष्टिमें पूरेमें अशुद्धता नहीं आयी है। पर्यायदृष्टिसे है। पर्यायदृष्टिसे शुद्ध भी द्रव्यमें जो है, वस्तु जो तलमें पडी है, वह सब आकर पर्यायरूप हो गया और बादमें कुछ नहीं रहा, ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- अक्षय भण्डार है।
समाधानः- हाँ, अक्षय भण्डार है, उसमेंसे कुछ कम नहीं होता। उसमें सब भरा ही है। उसमेंसे कम नहीं होता है। पर्याय चाहे जितनी पलटती ही रहे, उसमेंसे आती ही रहे तो भी कम नहीं होता है। भण्डार भरा है। अनन्त आनन्द प्रगट हो केवलज्ञानमें तो अनन्त काल पर्यंत परिणमता रहे तो भी उसमें कम नहीं होता। लोकालोकका ज्ञान एक समयमें हो, लोकालोकको जानता है तो भी दूसरे समय लोकालोकको जाननेवाली पर्याय परिणमती ही रहती है। सब जान लिया इसलिये उसकी पर्याय पूरी हो गयी तो दूसरे समय क्या आयेगा, ऐसा नहीं है। परिणमन होता ही रहता है, पलटता ही रहता है। उसमेंसे कम नहीं होता है, भण्डार भरा है।
मुमुक्षुः- भण्डार निरावरण है कि उसे कुछ आवरण है?
समाधानः- निरावरण है, किसी भी प्रकारका आवरण नहीं है। अनादिसे है उसमें भी आवरण नहीं है तो प्रगटमें तो कहाँ आवरण है? शक्तिरूपमें आवरण नहीं है। द्रव्य अपेक्षासे आवरण नहीं है, पर्याय अपेक्षासे है।
मुमुक्षुः- शक्ति जिसे कहते हैं वह निरावरण ही है?
समाधानः- निरावरण है। निरावरण अखण्ड एक वस्तु है, कोई आवरण नहीं है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनमें उसके दर्शन होते होंगे?
समाधानः- सम्यग्दर्शनमें उसकी पर्यायका वेदन होता है। द्रव्य पर दृष्टि है, पर्यायका वेदन होता है। अनन्त गुणका भण्डार आत्मा, उसकी निर्मल पर्यायोंका वेदन होता है, उसका दर्शन होता है। चैतन्यदेवके दर्शन होते हैं।
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मुमुक्षुः- शक्तिका?
समाधानः- सम्यग्दर्शनमें दर्शन होता है, उसकी पर्यायमें जो स्वानुभूतिकी पर्याय प्रगट होती है, उसके दर्शन होते हैं। उसमें द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्न-भिन्न नहीं है। उसमें आत्माका दर्शन साथमें हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- निरावरण हो तो पर्यायकी अशुद्धता उसे स्पर्शती नहीं?
समाधानः- स्पर्श नहीं करती। निरावरण ही रहती है, पर्यायमें अशुद्धता रहती है। स्फटिक निर्मल है, उसमें लाल-पीला होता है तो वह लाल-पीला उसके अन्दर मूल तलमें प्रवेश नहीं करता।
मुमुक्षुः- ऐसा ही कोई अतीन्द्रिय स्वभाव है।
समाधानः- ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है।
मुमुक्षुः- हे पूज्य धर्मात्मा! हम मुमुक्षुओंका ... कि ज्ञानीपुरुषों अर्थात धर्मी- सम्यग्दृष्टि पूरा दिन क्या करते होंगे? उन्हें परमें तो कुछ रहा नहीं, फिर भी समय कैसे व्यतीत होता होगा? यह कृपा करके समझाईये।
समाधानः- बाहरसे कोई कार्य करना हो तो समय व्यतीत हो, ऐसा नहीं है। सम्यग्दृष्टिको तो अंतरमें ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी है। ज्ञायककी परिणति ज्ञाताकी धारा चलती है। उसे तो क्षण-क्षणमें पुरुषार्थकी डोर साधनाकी पर्याय हो रही है। क्षण- क्षणमें विभाव होता है, उससे भिन्न होकर ज्ञायककी धारा, ज्ञायककी परिणति चालू ही है, पुरुषार्थकी डोर क्षण-क्षणमें चलती ही है और सहज ज्ञाताधारा चल रही है। पूरा दिन क्या करते होंगे (यह सवाल नहीं है)।
आत्माका तो निवृत्त स्वभाव है। विभावमें कुछ करे, बाहरका कुछ करे तो उसका समय व्यतीत हो, ऐसा नहीं है। अंतरमें कर्ता, क्रिया, कर्म आत्मामें है। बाहरका कुछ कर ही नहीं सकता है। बाहरमें करनेका अभिमानमात्र जीवने किया है कि मैं दूसरेका कर सकता हूँ। बाकी अंतरमें उसकी आत्माकी स्वरूप परिणतिकी क्रिया और उसका कार्य उसे चालू ही है। उसे क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी धारा चालू ही है। कभी-कभी विकल्प छूटकर स्वानुभूति प्रगट होती है और भेदज्ञानकी धारा चालू है। खाते-पीते, निद्रामें, स्वप्नमें उसे ज्ञायककी धारा चालू है। बाकी गृहस्थाश्रममें है तो बाह्य क्रियामें जुडता है। परन्तु उसकी ज्ञाताधारा चालू है। बाहरसे कार्य करते हुए दिखायी दें, फिर भी वह अंतरसे तो ज्ञायक ही रहता है। वह अंतरमें ज्ञायक हो गया, इसलिये वह कुछ करता नहीं है इसलिये उसका समय व्यतती नहीं होता है, ऐसा अर्थ नहीं है। विभावके कायामें जुडे तो समय व्यतीत हो, वह तो आकुलता है।
अंतरमें निवृत्त परिणति, शान्तिमय परिणतिमें जिसे सुख लगता है, बाहरमें कहीं
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भी सुख नहीं लगता है। वह तो गृहस्थाश्रम है।
मुनिओं अंतरमें तो अकर्ता हैं ही और चारित्रकी अपेक्षासे भी उन्हें बाहरका सब छूट गया है। शास्त्रमें आता है कि मुनिओं अशरण नहीं हैं। बाहरके पंच महाव्रतके परिणाम जो शुभ हैं, उससे भी उनकी परिणति भिन्न रहती है। मुनिओंकी ज्ञाताधारा, छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए क्षण-क्षणमें स्वरूपमें लीन हो जाते हैं, स्वानुभूतिकी दशामें। मुनिओं अशरण नहीं हैं, उन्हें आत्माका शरण है। मुनिओंका पूरा दिन कैसे व्यतीत होता होगा, वह कोई (सवाल) नहीं है। वे तो आत्मामें लीन रहते हैं।
वैसे सम्यग्दृष्टिको तो बाहर कोई कार्य हो तो भी अंतरका कार्य-अन्दर ज्ञाताकी धारा चालू है। क्षण-क्षणमें जो यह विभावकी परिणति हो रही है, उससे क्षण-क्षणमें उसकी परिणति भिन्न चलती ही रहती है। वह अशरण नहीं है। आत्माका शरण लिया है, आत्मामें ही सुख, शान्ति और स्वानुभूतिका कार्य चलता है। आत्माकी निर्मलता विशेष कैसे प्रगट हो, उसकी सहज दशा और उसकी पुरुषार्थकी विशेष डोर चलती रहती है।
सिद्ध भगवानको सब छूट गया इसलिये सिद्ध भगवान दिन-रात क्या करते होंगे, उसका सवाल नहीं है। सिद्ध भगवानकी अनन्त गुण-पर्यायें हैं। वे अनन्त गुण-पर्यायोंमें परिणमन करते रहते हैं। उन्हें कर्ता, क्रिया और कर्म सब अंतरमें प्रगट हुआ है और वह सहज है, आकुलतारूप नहीं है। आत्माका एकदम निवृत्त स्वभाव है और तो भी उसमें कर्ता, क्रिया और कर्म सिद्ध भगवानके जो गुण हैं, उन गुणोंका कार्य चलता रहता है। ज्ञान ज्ञानका कार्य करता है, आनन्द आनन्दका। ऐसे अनन्त गुण अनन्त गुणोंका कार्य करते हैं। तो भी उनकी परिणति निवृत्तमय है।
सिद्ध भगवान पूरा दिन क्या करते होंगे? आत्मामें लीन रहते हैं। अदभुत अनुपम दशामें रहते हैं। उसमें संतुष्ट हैं। उसमें तृप्ति है। उसमें उन्हें आनन्द है, बाहर जानेका मन भी नहीं होता है।
वैसे सम्यग्दृष्टिको अभी तो अधूरी दशा है। भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। उसे ऐसा नहीं होता है कि मैं ज्ञाता हो गया, अब दिन कैसे व्यतीत होगा? वह उसमें संतुष्ट है। उसमें उसे तृप्ति है। उसे कहीं बाहर जानेका मन नहीं होता है। कोई कार्यमें जुडनेका मन-कर्ताबुद्धिसे कहीं जुडनेका मन उसे नहीं होता है। उसे आत्मामें संतोष है, आत्मामें तृप्ति है, आत्मामें शान्ति है। उसे बाहर कहीं जानेका, अंतरसे स्वामीत्व बुद्धिसे जानेकी इच्छा नहीं होती है। अस्थिरतासे जाता है तो जाना होता है।
बाकी मुनिओंको सब छूट गया है। मुनिओंको निवृत्तमय परिणति विशेष है। उसमें वे थकते नहीं और बाहर जानेका मन नहीं होता। मैं आत्मामें कैसे स्थिर हो जाऊँ?
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यह स्वानुभूतिकी दशासे क्षण-क्षणमें बाहर आना पडता है, उसके बजाय अंतरमें शाश्वत कैसे रह जाऊँ? मुनिओंको ऐसी भावना होती है। उसमें ही उन्हें तृप्ति और आनन्द है। क्षण-क्षणमें बाहर जाना हो जाता है, तो बाहर कैसे न जाना हो, ऐसी उन्हें भावना रहती है। बाहर जाना भी रुचता नहीं है। आत्माका स्थान छोडकर, आत्माका जो अनन्त आनन्दका धाम और अनन्त सुखका धाम, आत्माका बाग छोडकर कहीं बाहर जानेका मन नहीं होता है। उनका पूरा समय आत्मामें ही व्यतीत होता है।
सम्यग्दृष्टिको तो ज्ञायककी धारा प्रगट है और उसे पुरुषार्थकी डोर चालू है। उनका समय कैसे व्यतीत होता होगा, ऐसा उसे सवाल नहीं है, ऐसा उसे होता ही नहीं। इसी मार्गसे अनन्त जीव, अनन्त साधक इसी प्रकारसे मोक्षको प्राप्त हुए हैं। कहीं बाहर जानेका मन नहीं होता है।
बाहरकी प्रवृत्ति तो एक उपाधि और बोजा है। वह कोई आत्माका स्वभाव नहीं है। वह तो उसने कर्ताबुद्धि मानी है इसलिये अस्थिरताके कारण उसने आत्माका स्थान ग्रहण नहीं किया है। स्वघर देखा नहीं है इसलिये बाह्यघरमें अनादिसे घूमता है। आत्माका एक मूल स्थान हाथ लग जाय तो उसे कहीं अन्य घरमें जानेका मन नहीं होता है। अस्थिरताके कारण जाता है।