जिस प्रकार थोड़ी–सी अग्नि बहुत–से घास और काष्ठकी राशिको अल्प कालमें जला देती है,
उसी प्रकार मिथ्यात्व–कषायादि विभावके परित्यागस्वरूप महा पवनसे प्रज्वलित हुई और अपूर्व– अद्भूत–परम–आह्लादात्मक सुखस्वरूप घृतसे सिंची हुई निश्चय–आत्मसंवेदनरूप ध्यानाग्नि मूलोत्तरप्रकृतिभेदवाले कर्मरूपी इन्धनकी राशिको क्षणमात्रमें जला देती है।
भावार्थः–निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारमें निश्चल परिणति वह २ध्यान है। यह ध्यान मोक्षके
उपायरूप है।
इस पंचमकालमें भी यथाशक्ति ध्यान हो सकता है। इस कालमेें जो विच्छेद है सो
शुक्लध्यानका है, धर्मध्यानका नहीं। आज भी यहाँसे जीव धर्मध्यान करके देवका भव और फिर मनुष्यका भव पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। और बहुश्रुतधर ही ध्यान कर सकते हैं ऐसा भी नहीं है; सारभूत अल्प श्रुतसे भी ध्यान हो सकता है। इसलिये मोक्षार्थीयोंको शुद्धात्माका प्रतिपादक, सवंरनिर्जराका करनेवाला और जरामरणका हरनेवाला सारभूत उपदेश ग्रहण करके ध्यान करनेयोग्य है।
[यहाँ यह लक्षमें रखने योग्य है कि उपरोक्त ध्यानका मूल सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनके बिना
ध्यान नहीं होता, क्योंकि निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारकी [शुद्धात्माकी] सम्यक् प्रतीति बिना उसमें निश्चल परिणति कहाँसे होसकती है? इसलिये मोक्षके उपायभूत ध्यान करनेकी इच्छा रखनेवाले जीवकोे प्रथम तो जिनोक्त द्रव्यगुणपर्यायरूप वस्तुस्वरूपकी यथार्थ समझपूर्वक निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारकी सम्यक् प्रतीतिका सर्व प्रकारसे उद्यम करने योग्य है; उसके पश्चात् ही चैतन्यचमत्कारमें विशेष लीनताका यथार्थ उद्यम हो सकता है]।। १४६।।
२। मुनिको जो शुद्धात्मस्वरूपका निश्चल उग्र आलम्बन वर्तता है उसे यहाँ मुख्यतः ‘ध्यान’ कहा है।
[शुद्धात्मावलम्बनकी उग्रताको मुख्य न करें तो, अविरत सम्यग्दष्टिको भी ‘जघन्य ध्यान’ कहनेमें विरोध नहीं है, क्यों कि उसे भी शुद्धात्मस्वरूपका जघन्य आलम्बन तो होता है।]
अन्वयार्थः– [यदि] यदि [आत्मा] आत्मा [रक्तः] रक्त [विकारी] वर्तता हुआ [उदीर्णं]
उदित [यम् शुभम् अशुभम् भावम्] शुभ या अशुभ भावको [करोति] करता है, तो [सः] वह आत्मा [तेन] उस भाव द्वारा [–उस भावके निमित्तसे] [विविधेन पुद्गलकर्मणा] विविध पुद्गलकर्मोंसे [बद्धः भवति] बद्ध होता है।
टीकाः–यह, बन्धके स्वरूपका कथन है।
यदि वास्तवमें यह आत्मा अन्यके [–पुद्गलकर्मके] आश्रय द्वारा अनादि कालसे रक्त रहकर
कर्मोदयके प्रभावयुक्तरूप वर्तनेसे उदित [–प्रगट होनेवाले] शुभ या अशुभ भावको करता है, तो वह आत्मा उस निमित्तभूत भाव द्वारा विविध पुद्गलकर्मसे बद्ध होता है। इसलिये यहाँ [ऐसा कहा है कि], मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे जो जीवके शुभ या अशुभ परिणाम वह भावबन्ध है और उसके [–शुभाशुभ परिणामके] निमित्तसे शुभाशुभ कर्मरूप परिणत पुद्गलोंका जीवके साथ अन्योन्य अवगाहन [–विशिष्ट शक्ति सहित एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध] वह द्रव्य बन्ध है।। १४७।।
अन्वयार्थः–[योगनिमित्तं ग्रहणम्] ग्रहणका [–कर्मग्रहणका] निमित्त योग है; [योगः
मनोवचनकायसंभूतः] योग मनवचनकायजनित [आत्मप्रदेशपरिस्पंद] है। [भावनिमित्तः बन्धः] बन्धका निमित्त भाव है; [भावः रतिरागद्वेषमोहयुतः] भाव रतिरागद्वेषमोहसे युक्त [आत्मपरिणाम] है।
टीकाः–यह, बन्धके बहिरंग कारण और अन्तरंग कारणका कथन है।
ग्रहण अर्थात् कर्मपुद्गलोंका जीवप्रदेशवर्ती [–जीवके प्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रमें स्थित]
कर्मस्कन्धोमें प्रवेश; उसका निमित्त योग है। योग अर्थात् वचनवर्गणा, मनोवर्गणा, कायवर्गणा और कर्मवर्गणाका जिसमें आलम्बन होता है ऐसा आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द [अर्थात् जीवके प्रदेशोंका कंपन।
बंध अर्थात् कर्मपुद्गलोंका विशिष्ट शक्तिरूप परिणाम सहित स्थित रहना [अर्थात्
कर्मपुद्गलोंका अमुक अनुभागरूप शक्ति सहित अमुक काल तक टिकना]; उसका निमित्त जीवभाव हैे। जीवभाव रतिरागद्वेषमोहयुक्त [परिणाम] है अर्थात् मोहनीयके विपाकसे उत्पन्न होनेवाला विकार है।
जीवके किसी भी परिणाममें वर्तता हुआ योग कर्मके प्रकृति–प्रदेशका अर्थात् ‘ग्रहण’ का
निमित्त होता है और जीवके उसी परिणाममें वर्तता हुआ मोहरागद्वेषभाव कर्मके स्थिति–अनुभागका अर्थात् ‘बंध’ का निमित्त होता है; इसलिये मोहरागद्वेषभावको ‘बन्ध’ का अंतरंग कारण [अंतरंग निमित्त] कहा है और योगको – जो कि ‘ग्रहण’ का निमित्त है उसे–‘बन्ध’ का बहिरंग कारण [बाह्य निमित्त] कहा है।। १४८।।
इसलिये यहाँ [बन्धमेंं], बहिरंग कारण [–निमित्त] योग है क्योंकि वह पुद्गलोंके ग्रहणका
हेतु है, और अंतरंग कारण [–निमित्त] जीवभाव ही है क्योंकि वह [कर्मपुद्गलोंकी] विशिष्ट शक्ति तथा स्थितिका हेतु है।। १४८।।
भावार्थः–कर्मबन्धपर्यायके चार विशेष हैंः प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध।
इसमें स्थिति–अनुभाग ही अत्यन्त मुख्य विशेष हैं, प्रकृति–प्रदेश तो अत्यन्त गौण विशेष हैं; क्योंकि स्थिति–अनुभाग बिना कर्मबन्धपर्याय नाममात्र ही रहती है। इसलिये यहाँ प्रकृति–प्रदेशबन्धका मात्र ‘ग्रहण’ शब्दसे कथन किया है और स्थिति–अनुभागबन्धका ही ‘बन्ध’ शब्दसे कहा है।
गाथा १४९
अन्वयार्थः–[चतुर्विकल्पः हेतुः] [द्रव्यमिथ्यात्वादि] चार प्रकारके हेतु [अष्टविकल्पस्य
कारणम्] आठ प्रकारके कर्मोंके कारण [भणितम्] कहे गये हैं; [तेषाम् अपि च] उन्हें भी [रागादयः] [जीवके] रागादिभाव कारण हैं; [तेषाम् अभावे] रागादिभावोंके अभावमें [न बध्यन्ते] जीव नहींं बँधते।
टीकाः– यह, मिथ्यात्वादि द्रव्यपर्यायोंको [–द्रव्यमिथ्यात्वादि पुद्गलपर्यायोंको] भी [बंधके]
बहिरंग–कारणपनेका प्रकाशन है।
१
ग्रंथान्तरमें [अन्य शास्त्रमें] मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग इन चार प्रकारके
द्रव्यहेतुओंको [द्रव्यप्रत्ययोंको] आठ प्रकारके कर्मोंके कारणरूपसे बन्धहेतु कहे हैं। उन्हें भी बन्धहेतुपनेके हेतु जीवभावभूत रागादिक हैं; क्योंकि २रागादिभावोंका अभाव होने पर द्रव्यमिथ्यात्व,
द्रव्य–असंयम, द्रव्यकषाय और द्रव्ययोगके सद्भावमें भी जीव बंधते नहीं हैं। इसलिये रागादिभावोंको अंतरंग बन्धहेतुपना होनेके कारण ३निश्चयसे बन्धहेतुपना है ऐसा निर्णय करना।। १४९।।
२। जीवगत रागादिरूप भावप्रत्ययोंका अभाव होने पर द्रव्यप्रत्ययोंके विद्यमानपनेमें भी जीव बंधते नहीं हैं। यदि
जीवगत रागादिभावोंके अभावमें भी द्रव्यप्रत्ययोंके उदयमात्रसे बन्ध हो तो सर्वदा बन्ध ही रहे [–मोक्षका अवकाश ही न रहे], क्योंकि संसारीयोंको सदैव कर्मोदयका विद्यमानपना होता है।
३। उदयगत द्रव्यमिथ्यात्वादि प्रत्ययोंकी भाँति रागादिभाव नवीन कर्मबन्धमें मात्र बहिरंग निमित्त नहीं है किन्तु वे
तो नवीन कर्मबन्धमें ‘अंतरंग निमित्त’ हैं इसलिये उन्हें ‘निश्चयसे बन्धहेतु’ कहे हैं।
[नियमात्] नियमसे [आस्रवनिरोधः जायते] आस्रवका निरोध होता है [तु] और [आस्रवभावेन विना] आस्रवभावके अभावमें [कर्मणः निरोधः जायते] कर्मका निरोध होता है। [च] और [कर्मणाम् अभावेन] कर्मोंका अभाव होनेसे वह [सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च] सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी होता हुआ [इन्द्रियरहितम्] इन्द्रियरहित, [अव्याबाधम्] अव्याबाध, [अनन्तम् सुखम् प्राप्नोति] अनन्त सुखको प्राप्त करता है।
आस्रवका हेतु वास्तवमें जीवका मोहरागद्वेषरूप भाव है। ज्ञानीको उसका अभाव होता है।
उसका अभाव होने पर आस्रवभावका अभाव होता है। आस्रवभावका अभाव होने पर कर्मका अभाव होता है। कर्मका अभाव होने पर सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, १इन्द्रियव्यापारातीत, अनन्त सुख होता है। यह निम्नानुसार प्रकार स्पष्टीकरण हैेः–
३। विवक्षित=कथन करना है।
२जीवन्मुक्ति नामका भावमोक्ष है। ‘किस प्रकार?’ ऐसा प्रश्न किया जाय तो
यहाँ जो ‘भाव’ ३विवक्षित है वह कर्मावृत [कर्मसे आवृत हुए] चैतन्यकी क्रमानुसार प्रवर्तती
ज्ञाप्तिक्रियारूप है। वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव] वास्तवमें संसारीको अनादि कालसे मोहनीयकर्मके उदयका अनुसरण करती हुई परिणतिके कारण अशुद्ध है, द्रव्यकर्मास्रवका हेतु है। परन्तु वह [क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव] ज्ञानीको मोहरागद्वेषवाली परिणतिरूपसे हानिको प्राप्त होता है इसलिये उसे आस्रवभावको निरोध होता है। इसलिये जिसे आस्रवभावका निरोध हुआ है ऐसे उस ज्ञानीको मोहके क्षय द्वारा अत्यन्त निर्विकारपना होनेसे, जिसे अनादि कालसे अनन्त चैतन्य और [अनन्त] वीर्य मुंद गया है ऐसा वह ज्ञानी [क्षीणमोह गुणस्थानमें] शुद्ध ज्ञप्तिक्रियारूपसे अंतर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपद् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होनेसे कथंचित्
१कूटस्थ ज्ञानको प्राप्त करता है और इस प्रकार उसे ज्ञप्तिक्रियाके रूपमें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होनेसे
१। कूटस्थ=सर्व काल एक रूप रहनेवालाः अचल। [ज्ञानावरणादि घातिकर्मोंका नाश होने पर ज्ञान कहींं सर्वथा
अपरिणामी नहीं हो जाता; परन्तु वह अन्य–अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होता–सर्वदा तीनों कालके समस्त ज्ञेयोंको जानता रहता है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]
२। भावकर्ममोक्ष=भावकर्मका सर्वथा छूट जाना; भावमोक्ष। [ज्ञप्तिक्रियामें क्रमप्रवृत्तिका अभाव होना वह भावमोक्ष है
अथवा सर्वज्ञ –सर्वदर्शीपनेकी और अनन्तानन्दमयपनेकी प्रगटता वह भावमोक्ष है।]
३। प्रकार=स्वरूप; रीत।
द्रगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे, ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने। १५२।
स्वरूपं पूर्वसंचितकर्मणां शक्तिशातनं पतनं वा विलोक्य निर्जराहेतुत्वेनोपवर्ण्यत इति।। १५२।।
इस प्रकार वास्तवमें इस [–पूवोक्त] भावमुक्त [–भावमोक्षवाले] भगवान केवलीको–कि
जिन्हें स्वरूपतृप्तपनेके कारण १कर्मविपाकृत सुखदुःखरूप विक्रिया अटक गई है उन्हें –आवरणके
प्रक्षीणपनेके कारण, अनन्त ज्ञानदर्शनसे सम्पूर्ण शुद्धज्ञानचेतनामयपनेके कारण तथा अतीन्द्रियपनेके कारण जो अन्यद्रव्यके संयोग रहित है और शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्यवृत्तिरूप होनेके कारण जो कथंचित् ‘ध्यान’ नामके योग्य है ऐसा आत्माका स्वरूप [–आत्माकी निज दशा] पूर्वसंचित कर्मोंकी शक्तिको शातन अथवा उनका पतन देखकर निर्जराके हेतुरूपसे वर्णन किया जाता है।
शुद्धज्ञानचेतनामय होनेके कारण तथा इन्द्रियव्यापारादि बहिर्द्रव्यके आलम्बन रहित होनेके कारण अन्यद्रव्यके संसर्ग रहित है और शुद्धस्वरूपमें निश्चल चैतन्यपरिणतिरूप होनेके कारण किसी प्रकार ‘ध्यान’ नामके योग्य है। उनकी ऐसी आत्मदशाका निर्जराके निमित्तरूपसे वर्णन किया जाता है क्योंकि उन्हें पूर्वोपार्जित कर्मोंकी शक्ति हीन होती जाती है तथा वे कर्म खिरते जाते है।। १५२।।
अन्वयार्थः–[यः संवरेण युक्तः] जो संवरसेयुक्त हैे ऐसा [केवलज्ञान प्राप्त] जीव [निर्जरन्
अथ सर्वकर्माणि] सर्व कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ [व्यपगतवेद्यायुष्कः] वेदनीय और आयु रहित होकर [भवं मञ्चति] भवको छोड़ता है; [तेन] इसलिये [इस प्रकार सर्व कर्मपुद्गलोंका वियोग होनेके कारण] [सः मोक्षः] वह मोक्ष है।
वास्तवमें भगवान केवलीको, भावमोक्ष होने पर, परम संवर सिद्ध होनेके कारण उत्तर
कर्मसंतति निरोधको प्राप्त होकर और परम निर्जराके कारणभूत ध्यान सिद्ध होनेके कारण कर्मसंतति– कि जिसकी स्थिति कदाचित् स्वभावसे ही आयुकर्मके जितनी होती है और कदाचित्
वह– आयुकर्मके अनुसार ही निर्जरित होती
हुई,े दनीय–आयु–नाम–गोत्ररूप कर्मपुद्गलोंका जीवके साथ अत्यन्त विश्लेष [वियोग] वह द्रव्यमोक्ष है।। १५३।।
१। उत्तर कर्मसंतति=बादका कर्मप्रवाह; भावी कर्मपरम्परा।
२। पूर्व=पहलेकी। ३। केवलीभगवानको वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मकी स्थिति कभी स्वभावसे ही [अर्थात् केवलीसमुद्घातरूप
निमित्त हुए बिना ही] आयुकर्मके जितनी होती है और कभी वह तीन कर्मोंकी स्थिति आयुकर्मसे अधिक होने पर भी वह स्थिति घटकर आयुकर्म जितनी होनेमें केवलीसमुद्घात निमित्त बनता है।
४। अपुनर्भव=फिरसे भव नहीं होना। [केवलीभगवानको फिरसे भव हुए बिना ही उस भवका त्याग होता है;
इसलिये उनके आत्मासे कर्मपुद्गलोंका सदाके लिए सर्वथा वियोग होता है।]
संवरसहित ते जीव पूर्ण समस्त कर्मो निर्जरे ने आयुवेद्यविहीन थई भवने तजे; ते मोक्ष छे। १५३।
अन्वयार्थः–[जीवस्वभावं] जीवका स्वभाव [ज्ञानम्] ज्ञान और [अप्रतिहत–दर्शनम्]
अप्रतिहत दर्शन हैे– [अनन्यमयम्] जो कि [जीवसे] अनन्यमय है। [तयोः] उन ज्ञानदर्शनमें [नियतम्] नियत [अस्तिवम्] अस्तित्व– [अनिन्दितं] जो कि अनिंदित है– [चारित्रं च भणितम्] उसे [जिनेन्द्रोंने] चारित्र कहा है।
टीकाः–यह, मोक्षमार्गके स्वरूपका कथन है।
जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है। जीवस्वभाव वास्तवमें ज्ञान–दर्शन है क्योंकि वे
[जीवसे] अनन्यमय हैं। ज्ञानदर्शनका [जीवसे] अनन्यमयपना होनेका कारण यह है कि
विशेषचैतन्य और सामान्यचैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे जीवसे वे निष्पन्न हैं [अर्थात् जीव द्वारा
ज्ञानदर्शन रचे गये हैं]। अब जीवके स्वरूपभूत ऐसे उन ज्ञानदर्शनमें नियत–अवस्थित ऐसा जो उत्पादव्ययध्रौव्यरूप वृत्तिमय अस्तित्व– जो कि रागादिपरिणामके अभावके कारण अनिंदित है – वह चारित्र है; वही मोक्षमार्ग है।
१
२
३
संसारीयोंमें चारित्र वास्तवमें दो प्रकारका हैः– [१] स्वचारित्र और [२] परचारित्र;
[१]स्वसमय और [२] परसमय ऐसा अर्थ है। वहाँ, स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप [चारित्र] वह स्वचारित्र है और परभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप [चारित्र] वह परचारित्र है। उसमेंसे
[अर्थात् दो प्रकारके चारित्रमेंसे], स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वरूप चारित्र–जो कि परभावमें अवस्थित अस्तित्वसे भिन्न होनेके कारण अत्यन्त अनिंदित है वह–यहाँ साक्षात् मोक्षमार्गरूप अवधारणा।
[यही चारित्र ‘परमार्थ’ शब्दसे वाच्य ऐसे मोक्षका कारण है, अन्य नहीं–ऐसा न जानकर,
मोक्षसे भिन्न ऐसे असार संसारके कारणभूत मिथ्यात्वरागादिमें लीन वर्तते हुए अपना अनन्त काल गया; ऐसा जानकर उसी जीवस्वभावनियत चारित्रकी – जो कि मोक्षके कारणभूत है उसकी – निरन्तर भावना करना योग्य है। इस प्रकार सूत्रतात्पर्य है।] । १५४।।
गाथा १५५
अन्वयार्थः–[जीवः] जीव, [स्वभावनियतः] [द्रव्य–अपेक्षासे] स्वभावनियत होने पर भी,
[अनियतगुणपर्यायः अथ परसमयः] यदि अनियत गुणपर्यायवाला हो तो परसमय है। [यदि] यदि वह [स्वकं समयं कुरुते] [नियत गुणपर्यायसे परिणमित होकर] स्वसमयको करता है तो [कर्मबन्धात्] कर्मबन्धसे [प्रभ्रस्यति] छूटता है।
टीकाः– स्वसमयके ग्रहण और परसमयके त्यागपूर्वक कर्मक्षय होता है– ऐसे प्रतिपादन द्वारा
यहाँ [इस गाथामें] ‘जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है’ ऐसा दर्शाया है।
संसारी जीव, [द्रव्य–अपेक्षासे] ज्ञानदर्शनमें अवस्थित होनेके कारण स्वभावमें नियत
[–निश्चलरूपसे स्थित] होने पर भी जब अनादि मोहनीयके उदयका अनुसरण करके परिणति करने के कारण उपरक्त उपयोगवाला [–अशुद्ध उपयोगवाला] होता है तब [स्वयं] भावोंका विश्वरूपपना [–अनेकरूपपना] ग्रहण किया होनकेे कारण उसेे जो अनियतगुणपर्यायपना होता है वह परसमय अर्थात् परचारित्र है; वही [जीव] जब अनादि मोहनीयके उदयका अनुसरण करने वाली परिणति करना छोड़कर अत्यन्त शुद्ध उपयोगवाला होता है तब [स्वयं] भावका एकरूपपना ग्रहण किया होनेके कारण उसे जो नियतगुणपर्यायपना होता है वह स्वसमय अर्थात् स्वचारित्र है।
१
२
३
अब, वास्तवमें यदि किसी भी प्रकार सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगट करके जीव परसमयको छोड़कर
स्वसमयको ग्रहण करता है तो कर्मबन्धसे अवश्य छूटता है; इसलिये वास्तवमें [ऐसा निश्चित होता है कि] जीवस्वभावमें नियत चारित्र वह मोक्षमार्ग है।। १५५।।
अन्वयार्थः–[यः] जो [रागेण] रागसे [–रंजित अर्थात् मलिन उपयोगसे] [परद्रव्ये]
परद्रव्यमें [शुभम् अशुभम् भावम्] शुभ या अशुभ भाव [यदि करोति] करता है, [सः जीवः] वह जीव [स्वकचरित्रभ्रष्टः] स्वचारित्रभ्रष्ट ऐसा [परचरितचरः भवति] परचारित्रका आचरण करनेवाला है।
टीकाः–यह, परचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है।
जो [जीव] वास्तवमें मोहनीयके उदयका अनुसरण करनेवालीे परिणतिके वश [अर्थात्
मोहनीयके उदयका अनुसरण करके परिणमित होनेके कारण ] रंजित–उपयोगवाला [उपरक्तउपयोगवाला] वर्तता हुआ, परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भावको धारण करता है, वह [जीव] स्वचारित्रसे भ्रष्ट ऐसा परचारित्रका आचरण करनेवाला कहा जाता है; क्योंकि वास्तवमें स्वद्रव्यमें ंशुद्ध–उपयोगरूप परिणति वह स्वचारित्र है और परद्रव्यमें सोपराग–उपयोगरूप परिणति वह परचारित्र है।। १५६।।
अन्वयार्थः– [येन भावेन] जिस भावसे [आत्मनः] आत्माको [पुण्यं पापं वा] पुण्य अथवा पाप
[अथ आस्रवति] आस्रवित होते हैं, [तेन] उस भाव द्वारा [सः] वह [जीव] [परचरित्रः भवति] परचारित्र है–[इति] ऐसा [जिनाः] जिन [प्ररूपयन्ति] प्ररूपित करते हैं।
टीकाः– यहाँ, परचारित्रप्रवृति बंधहेतुभूत होनेसे उसे मोक्षमार्गपनेका निषेध किया गया है
[अर्थात् परचारित्रमें प्रवर्तन बंधका हेतु होनेसे वह मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा इस गाथामें दर्शाया है]।
यहाँ वास्तवमें शुभोपरक्त भाव [–शुभरूप विकारी भाव] वह पुण्यास्रव है और अशुभोपरक्त
भाव [–अशुभरूप विकारी भाव] पापास्रव है। वहाँ, पुण्य अथवा पाप जिस भावसे आस्रवित होते हैं, वह भाव जब जिस जीवको हो तब वह जीव उस भाव द्वारा परचारित्र है– ऐसा [जिनेंद्रों द्वारा] प्ररूपित किया जाता है। इसलिये [ऐसा निश्चित होता है कि] परचारित्रमें प्रवृत्ति सो बंधमार्ग ही है, मोक्षमार्ग नहीं है।। १५७।।
अन्वयार्थः– [यः] जो [सर्वसङ्गमुक्तः] सर्वसंगमुक्त और [अनन्यमनाः] अनन्यमनवाला वर्तता
हुआ [आत्मानं] आत्माको [स्वभावेन] [ज्ञानदर्शनरूप] स्वभाव द्वारा [नियतं] नियतरूपसे [– स्थिरतापूर्वक] [जानाति पश्यति] जानता–देखता है, [सः जीवः] वह जीव [स्वकचरितं] स्वचारित्र [चरित] आचरता है।
टीकाः–यह, स्वचारित्रमें प्रवर्तन करनेवालेके स्वरूपका कथन है।
२। आवृत्त=विमुख हुआ; पृथक हुआ; निवृत्त हुआ ; निवृत्त; भिन्न।
जो [जीव] वास्तवमें निरुपराग उपयोगवाला होनेके कारण सर्वसंगमुक्त वर्तता हुआ,
परद्रव्यसे व्यावृत्त उपयोगवाला होनेके कारण अनन्यमनवाला वर्तता हुआ, आत्माको ज्ञानदर्शनरूप
१
२३
१। निरुपराग=उपराग रहित; निर्मळ; अविकारी; शुद्ध [निरुपराग उपयोगवाला जीव समस्त बाह्य–अभ्यंतर संगसे शून्य है तथापि निःसंग परमात्माकी भावना द्वारा उत्पन्न सुन्दर आनन्दस्यन्दी परमानन्दस्वरूप सुखसुधारसके आस्वादसे, पूर्ण–कलशकी भाँति, सर्व आत्मप्रदेशमें भरपूर होता है।]
३। अनन्यमनवाला=जिसकी परिणति अन्य प्रति नहीं जाती ऐसा। [मन=चित्त; परिणति; भाव]
सौ–संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने
जाणे अने देखे नियत रही, ते स्वचरितप्रवृत्त छे। १५८।
स्वभाव द्वारा नियतरूपसे अर्थात् अवस्थितरूपससे जानता–देखता है, वह जीव वास्तवमें स्वचारित्र आचरता है; क्योंकि वास्तवमें दृशिज्ञप्तिस्वरूप पुरुषमें [आत्मामें] तन्मात्ररूपसे वर्तना सो स्वचारित्र है।
१
भावार्थः–जो जीव शुद्धोपयोगी वर्तता हुआ और जिसकी परिणति परकी ओर नहीं जाती ऐसा
वर्तता हुआ, आत्माको स्वभावभूत ज्ञानदर्शनपरिणाम द्बारा स्थिरतापूर्वक जानता–देखता है, वह जीव स्वचारित्रका आचरण करनेवाला है; क्योंकि दृशिज्ञप्तिस्वरूप आत्मामें मात्र दृशिज्ञप्तिरूपसे परिणमित होकर रहना वह स्वचारित्र है।। १५८।।
गाथा १५९
अन्वयार्थः– [यः] जो [परद्रव्यात्मभावरहितात्मा] परद्रव्यात्मक भावोंसे रहित स्वरूपवाला
वर्तता हुआ, [दर्शनज्ञानविकल्पम्] [निजस्वभावभूत] दर्शनज्ञानरूप भेदको [आत्मनः अविकल्पं] आत्मासे अभेरूप [चरति] आचरता है, [सः] वह [स्वकं चरितं चरति] स्वचारित्रको आचरता है।
टीकाः–यह, शुद्ध स्वचारित्रप्रवृत्तिके मार्गका कथन है।
३। जिस नयमें साध्य और साधन अभिन्न [अर्थात् एक प्रकारके] हों वह यहाँ निश्चयनय हैे। जैसे कि,
निर्विकल्पध्यानपरिणत [–शुद्धाद्नश्रद्धानज्ञानचारित्रपरिणत] मुनिको निश्चयनयसे मोक्षमार्ग है क्योंकि वहाँ [मोक्षरूप] साध्य और [मोक्षमार्गरूप] साधन एक प्रकारके अर्थात् शुद्धात्मरूप [–शुद्धात्मपर्यायरूप] हैं।
यो हि योगीन्द्रः समस्तमोहव्यूहबहिर्भूतत्वात्परद्रव्यस्वभावभावरहितात्मा सन्, स्वद्रव्य–
मेकमेवाभिमुख्येनानुवर्तमानः स्वस्वभावभूतं दर्शनज्ञानविकल्पमप्यात्मनोऽविकल्पत्वेन चरति, स खलु स्वकं चरितं चरति। एवं हि शुद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्य–
जो योगीन्द्र, समस्त मोहव्यूहसे बहिर्भूत होनेके कारण परद्रव्यके स्वभावरूप भावोंसे रहित
स्वरूपवाले वर्तते हुए, स्वद्रव्यको एकको ही अभिमुखतासे अनुसरते हुए निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदको भी आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे वास्तवमें स्वचारित्रको आचरते हैं।
१
इस प्रकार वास्तवमें शुद्धद्रव्यके आश्रित, अभिन्नसाध्यसाधनभाववाले निश्चयनयके आश्रयसे
मोक्षमार्गका प्ररूपण किया गया। और जो पहले [१०७ वीं गाथामें] दर्शाया गया था वह स्वपरहेतुक
१। मोहव्यूह=मोहसमूह। [जिन मुनींद्रने समस्त मोहसमूहका नाश किया होनेसे ‘अपना स्वरूप परद्रव्यके
स्वभावरूप भावोंसे रहित है’ ऐसी प्रतीति और ज्ञान जिन्हें वर्तता है, तथा तदुपरान्त जो केवल स्वद्रव्यमें ही निर्विकल्परूपसे अत्यन्त लीन होकर निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदोंको आत्मासे अभेदरूपसे आचरते हैं, वे मुनींद्र स्वचारित्रका आचरण करनेवाले हैं।]
२। यहाँ निश्चयनयका विषय शुद्धद्रव्य अर्थात् शुद्धपर्यायपरिणत द्रव्य है, अर्थात् अकले द्रव्यकी [–परनिमित्त
रहित] शुद्धपर्याय हैे; जैसे कि निर्विकल्प शुद्धपर्यायपरिणत मुनिको निश्चयनयसे मोक्षमार्ग है।
४। जिन पर्यायोंमें स्व तथा पर कारण होते हैं अर्थात् उपादानकारण तथा निमित्तकारण होते हैं वे पर्यायें
स्वपरहेतुक पर्यायें हैं; जैसे कि छठवें गुणस्थानमें [द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके आंशिक अवलम्बन सहित] वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान [नवपदार्थगत श्रद्धान], तत्त्वार्थज्ञान [नवपदार्थगत ज्ञान] और पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र–यह सब स्वपरहेतुक पर्यायें हैं। वे यहा व्यवहारनयके विषयभूत हैं।
पर्यायके आश्रित, भिन्नसाध्यसाधनभाववाले व्यवहारनयके आश्रयसे [–व्यवहारनयकी अपेक्षासे] प्ररूपित किया गया था। इसमें परस्पर विरोध आता है ऐसा भी नहीं है, क्योंकि सुर्वण और
१। जिस नयमें साध्य तथा साधन भिन्न हों [–भिन्न प्ररूपित किये जाएँ] वह यहाँ व्यवहारनय है; जैसे कि,
छठवें गुणस्थानमें [द्रव्यार्थिकनयके विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपके आंशिक आलम्बन सहित] वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान [नवपदार्थसम्बन्धी श्रद्धान], तत्त्वार्थज्ञान और पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र व्यवहारनयसे मोक्षमार्ग है क्योंकि [मोक्षरूप] साध्य स्वहेतुक पर्याय है और [तत्त्वार्थश्रद्धानादिमय मोक्षमार्गरूप] साधन स्वपरहेतुक पर्याय है।
२। जिस पाषाणमें सुवर्ण हो उसे सुवर्णपाषाण कहा जाता है। जिस प्रकार व्यवहारनयसे सुवर्णपाषाण सुवर्णका
साधन है, उसी प्रकार व्यवहारनयसे व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधन है; अर्थात् व्यवहारनयसे भावलिंगी मुनिको सविकल्प दशामें वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान और महाव्रतादिरूप चारित्र निर्विकल्प दशामें वर्तते हुए शुद्धात्मश्रद्धानज्ञानानुष्ठाननके साधन हैं।
४। जिनभगवानके उपदेशमें दो नयों द्वारा निरूपण होता है। वहाँ, निश्चयनय द्वारा तो सत्यार्थ निरूपण किया
जाता हैे और व्यवहारनय द्वारा अभूतार्थ उपचरित निरूपण किया जाता है।
प्रश्नः– सत्यार्थ निरूपण ही करना चाहिये; अभूतार्थ उपचरित निरूपण किसलिये किया जाता है? उत्तरः– जिसे सिंहका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न आता हो उसे सिंहके स्वरूपके उपचरित निरूपण
द्वारा अर्थात् बिल्लीके स्वरूपके निरूपण द्वारा सिंहके यथार्थ स्वरूपकी समझ की ओर ले जाते हैं, उसी प्रकार जिसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप सीधा समझमें न आता हो उसे वस्तुस्वरूपके उपचरित निरूपण द्वारा वस्तुस्वरूपकी यथार्थ समझ की ओर ले जाते हैं। और लम्बे कथनके बदलेमें संक्षिप्त कथन करनेके लिए भी व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण किया जाता है। यहाँ इतना लक्षमें रखनेयोग्य है कि – जो पुरुष बिल्लीके निरूपणको ही सिंहका निरूपण मानकर बिल्लीको ही सिंह समझ ले वह तो उपदेशके ही योग्य नहीं है, उसी प्रकार जो पुरुष उपचरित निरूपणको ही सत्यार्थ निरूपण मानकर वस्तुस्वरूपको मिथ्या रीतिसे समझ बैठेे वह तो उपदेशके ही योग्य नहीं है।