दुःख सहन कर रहा है उसका हृदयस्पर्शी वर्णन इस प्राभृत में किया गया है; और उन दुःखोंसे
छूटनेके लिये शुद्ध भावरूप परिणमन कर भावलिङ्गी मुनि दशा प्रगट किये बिना अन्य कोई
उपाय नहीं है ऐसा विशदतासे वर्णन किया है। उसके लिये
प्रेरक और भाववाही है एवं शुद्धभाव प्रगट करने वाले सम्यक् पुरुषार्थके प्रति जीव को सचेत
करने वाला है ।
‘मोक्षप्राभृत’ में १०६ गाथा हैं। इस प्राभृत में मोक्षका–परमात्मपदका–अति संक्षेपमें निर्देश
करके, पश्चात् वह
‘लिंगप्राभृत’ में २२ गाथा हैं। जो जीव मुनिका बाह्यलिंग धारण करके अति भ्रष्टाचारीरूपसे
आचरण करता है, उसका अति निकृष्टपना एवं निन्द्यपना इस प्राभृत में बताया है।
‘शीलप्राभृत’ में ४० गाथा हैं। ज्ञान विना
किया है। वस्तुतः इस काल में यह परमागम शास्त्र मुुमुुक्षु भव्य जीवों को परम आधार हैं। ऐसे
दुःषम काल में भी ऐसे अद्भुत अनन्य–शरणभूत शास्त्र–तीर्थंकर देवके मुखारविन्दसे विनिर्गत
अमृत–विद्यमान हैं वह हमारा महान भाग्य है। पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के शब्दों में
कहें तो–
कल्पवृक्ष हैं। चौदहपूर्वोंका रहस्य इनमें समाविष्ट है। इनकी प्रत्येक गाथा छठवें–सातवें
गुणस्थानमें झूलते हुए महामुनि के आत्म अनुभव में से निकली हुई है। इन
भगवानके समवशरणमें गये थे और वे वहाँ आठ दिन रहें थे सो बात यथातथ है, अक्षरशः
सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, उसमें लेशमात्र भी शंकाको स्थान नहीं है। उन परमोपकारी
आचार्यभगवानके रचे हुए इन परमागमोंमें श्री तीर्थंकरदेवके निरक्षर ऊँकार दिव्यध्वनिसे निकला
हुुआ ही उपदेश है।’