अभी भी अनेक आत्मार्थीयोंको आत्मजीवन समर्पित करते हैं। उनके समयसार, प्रवचनसार और
पंचास्तिकाय संग्रह नामक तीन उत्तमोत्तम शास्त्र ‘प्राभृतत्रय’ कहे जाते हैं। यह प्राभृतत्रय एवं
नियमसार तथा अष्टप्राभृत–यह पांच परमागमों में हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। भगवान्
श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव के पश्चात् लिखे गये अनेक ग्रन्थों के बीज इन परमागमोंमें निहित हैं
ऐसा सूक्ष्म दृष्टि से अभ्यास करने पर ज्ञात होता है।
‘दर्शनप्राभृत’ में गाथा संख्या ३६ हैं। ‘धर्म का मूल दर्शन
प्राभृतशास्त्र में वर्णन किया गया है।
‘सूत्रप्राभृत’ में २७ गाथा हैं। इस प्राभृत में, जिनसूत्रानुसार आचारण जीवको हित रूप है
और जिनसूत्रविरुद्ध आचारण अहितरूप है–यह संक्षेपमें बताया गया है, तथा जिनसूत्रकथित
मुनिलिंगादि तीन लिंगोंका संक्षिप्त निरूपण है।
‘चारित्रपाभृत’ में ४५ गाथा हैं। उसमें, सम्यक्त्वचरणचारित्र और संयमचरणचारित्र के रूपमें
चारित्रका वर्णन है। संयमचरणका देशसंयमचरण और सकलसंयमचरण–इस प्रकार दो भेदसे
वर्णन करते हुए, श्रावकके बारह व्रत और मुनिराजके पंचेन्द्रियसंवर, पांच महाव्रत, प्रत्येक
महाव्रतकी पाँच–पाँच भावना, पाँच समिति इत्यादिका निर्देश किया गया है।
‘बोधप्राभृत’ में ६२ गाथा हैं। आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा,
ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रव्रज्या–इन ग्यारह विषयोंका इस प्राभृतमें संक्षिप्त कथन है।
‘भावश्रमण हैं सो आयतन हैं, चैत्यगृह हैं, जिनप्रतिमा हैं’–ऐसे वर्णन विशेषात्मक एक विशिष्ट
प्रकार से आयतनादि कतिपय विषयोंका इसमें
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तासके अभ्यासतें विकाश भेदज्ञान होत, मूढ़ सो लखे नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्दसे।।
देत हैं अशीस शीस नाय इन्दु चन्द जाहि, मोह–मार–खण्ड मारतंड कुन्दकुन्दसे।
विशुद्धिबुद्धिवृद्धिदा प्रसिद्ध ऋद्धि सिद्धिदा हुए न, हैं, न होंहिंगे, मुनिंद कुन्दकुन्दसे।।