लिंगप्राभृत, और शीलप्राभृत–यह आठ प्राभृतोंका समूह–संसकरण है।
महत्ता प्रसिद्ध करता है, क्योंकि उसमें सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीर स्वामी एवं गणधर भगवान्
श्री गौतमस्वामी के पश्चात् अनन्तर ही, उनका मंगल रूप में स्मरण किया गया है। दिगम्बर
जैन साधु स्वयं को भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी परम्परा के कहलाने में अपना गौरव मानते
हैं। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचन तुल्य ही प्रमाणभूत माने जाते
हैं। उनके उत्तरर्वी ग्रन्थकार आचार्य, मुनि एवं विद्धान् अपने किसी कथन को सिद्ध करने के
लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं और इसलिये वह कथन निर्विवाद ठहरता है।
उनके पश्चात् लिखे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रों में से बहुत अवतरण लिये गये हैं। वि॰ सं॰ ६६०
में होने वाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार ग्रन्थ में कहते हैं कि –
‘कलिकालसर्वज्ञ’ कहा गया है, सो इस प्रकार है।–‘पद्यनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य,
एलाचार्य एवं गृध्रपिच्छाचार्य ये पाँच नाम से विभूषित, चार अंगुल ऊँचाई पर आकाश में गमन
की जिनके ऋद्धि थी, पूर्वविदेहक्षेत्र में जाकर जिन्होंने सीमन्धरभगवानकी वन्दना की थी और
उनके पाससे प्राप्त हुए श्रृतज्ञानसे जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोध किया है ऐसे जो
श्री जिनचन्द्रसूरी भट्टारकके पट्ट के आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ
कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी महत्ता सूचित करनेवाले ऐसे