७६] [अष्टपाहुड
गुणस्थानरूप हो श्रेणी चढ़ अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान उत्पन्न कर अघातिकर्मका नाश करके मोक्ष
प्राप्त करता है, यह सम्यक्त्वचरण चारित्रका ही माहात्म्य है।।९।।
आगे कहते हैं कि जो सम्यक्त्व के आचरण से भ्रष्ट हैं और वे संयमका आचरण करते
हैं तो भी मोक्ष नहीं पाते हैंः–––
सम्मत्तचरणभट्ठा संजमचरणं चरंति जे वि णरा।
अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं।। १०।।
सम्यक्त्वचरणभ्रष्टाः संयमचरणं चरन्ति येऽपि नराः।
अज्ञानज्ञानमूढाःतथाऽपि न प्राप्नुवंति निर्वाणम्।। १०।।
अर्थः––जो पुरुष सम्यक्त्वचरण चारित्रसे भ्रष्ट है और संयमका आचरण करते हैं तो भी
वे अज्ञान से मूढ़दृष्टि होते हुए निर्वाण को नहीं पाते हैं।
भावार्थः––सम्यक्त्वचरण चारित्रके बिना संयमचरण चारित्र निर्वाणका कारण नहीं है
क्योंकि सम्यग्ज्ञानके बिना तो ज्ञान मिथ्या कहलाता है, सो इसप्रकार सम्यक्त्वके बिना चारित्र
के भी मिथ्यापना आता है।।१०।।
आगे प्रश्न उत्पन्न होता है कि इसप्रकार सम्यक्त्वचरण चारित्र के चिन्ह क्या हैं जिनसे
उसको जानें, इसके उत्तररूप गाथामें सम्यक्त्व के चिन्ह कहते हैंः–––
विच्छल्लं विणएण य अणकंपाए सुदाण दच्छाए।
मग्गगुणसंसणाए अवगूहण रक्खणाए य।। ११।।
ए ए हिं लक्खणेंहिं य लक्खिज्जइ अज्जवेहिं भावेहिं।
जीवो आराहंतो जिणसम्मत्तं अमोहेण।। १२।।
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सम्यक्त्वचरणविहीन छो संयमचरण जन आचरे,
तोपण लहे नहि मुक्तिने अज्ञानज्ञानविमूढ ए। १०।