चारित्रपाहुड][७५
तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाए।
जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मतचरणचारित्तं।। ८।।
तच्चैव गुणविशुद्धं जिनसम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय।
तत् चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्व चरणचारित्रम्।। ८।।
अर्थः––वह जिनसम्यक्त्व अर्थात् अरहंत जिनदेव की श्रद्धा निःशंकित आदि गुणोंसे
विशुद्ध हो उसका यथार्थ ज्ञानके साथ आचरण करे वह प्रथम सम्यक्त्वचरण चारित्र है, वह
मोक्षस्थान के लिये होता है।
भावार्थः––सर्वज्ञभाषित तत्त्वार्थकी श्रद्धा निःशंकित आदि गुण सहित, पच्चीस मल दोष
रहित, ज्ञानवान आचरण करे उसको सम्यक्त्वचरण चारित्र कहते हैं। यह मोक्ष की प्रप्ति के
लिये होता है क्योंकि मोक्षमार्ग में पहिले सम्यग्दर्शन कहा है इसलिये मोक्षमार्ग में प्रधान यह ही
है।।८।।
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार सम्यक्त्वचरण चरित्र को अंगीकार करे तो शीघ्र ही
निर्वाण को प्राप्त करता हैः––
सम्मतचरणसुद्धा संजम चरणस्स जइ व सुपसिद्धा।
णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ।। ९।।
सम्यक्त्वचरणविशुद्धाः संयमचरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धाः।
ज्ञानिनः अमूढद्रष्टयः अचिरं प्राप्नुवंति निर्वाणम् ।। ९।।
अर्थः––जो ज्ञानी होते हुए अमूढ़दृष्टि होकर सम्यक्त्वचरण चारित्रसे शुद्ध होता है और
जो संयमचरण चारित्र से सम्यक् प्रकार शुद्ध हो तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है।
भावार्थः––जो पदार्थोंके यथार्थ ज्ञान से मूढ़दृष्टि रहित विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होकर
सम्यक्चारित्र स्वरूप संयम का आचारण करे तो शीघ्र ही मोक्ष को पावे, संयम अंगीकार करने
पर स्वरूपके साधनरूप एकाग्र धर्मध्यान के बलसे सातिशय अप्रमत्त
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ते अष्टगुणसुविशुद्ध जिनसम्यक्त्वने–शिवहेतुन,
आचरवुं ज्ञान समेत, ते सम्यक्त्वचरण चरित्र छे। ८।
सम्यक्त्वचरणविशुद्धने निष्पन्नसंयमचरण जो,
निर्वाणने अचिरे वरे अविमूढ दृष्टि ज्ञानीओ। ९।