ण जहादि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण।। १४।।
न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण।। १४।।
अर्थः––सुदर्शन अर्थात् सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप सम्यक्मार्ग उसमें उत्साह
भावना अर्थात् ग्रहण करने का उत्साह करके बारम्बार चिंतवनरूप भाव और प्रशंसा अर्थात्
मन–वचन–काय से भला जानकर स्तुति करना, सेवा अर्थात् उपासना, पूजनादिक करना और
श्रद्धा करना, इसप्रकार ज्ञानमार्गसे यथार्थ जानकर करता पुरुष है वह जिनमत की श्रद्धारूप
सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है।
अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए।। १५।।
अथ मोहं सारंभं परिहर धर्मे अहिंसायाम्।। १५।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि हे भव्य! तू ज्ञान के होने पर तो अज्ञानका त्याग कर,
विशुद्ध सम्यक्त्व के होनेपर मिथ्यात्वका त्याग कर और अहिंसा लक्षण धर्म के होने पर
आरंभसहित मोह को छोड़।
स्तुति ज्ञानमार्गथी जे करे, छोडे न जिनसम्यक्त्वने। १४।
अज्ञान ने मिथ्यात्व तज, लही ज्ञान, समकित शुद्धने