चारित्रपाहुड][७९
उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा
ण जहादि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण।। १४।।
ण जहादि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण।। १४।।
उत्साहभावना शंप्रशंससेवाः सुदर्शने श्रद्धां।
न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण।। १४।।
न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण।। १४।।
अर्थः––सुदर्शन अर्थात् सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप सम्यक्मार्ग उसमें उत्साह
भावना अर्थात् ग्रहण करने का उत्साह करके बारम्बार चिंतवनरूप भाव और प्रशंसा अर्थात्
मन–वचन–काय से भला जानकर स्तुति करना, सेवा अर्थात् उपासना, पूजनादिक करना और
श्रद्धा करना, इसप्रकार ज्ञानमार्गसे यथार्थ जानकर करता पुरुष है वह जिनमत की श्रद्धारूप
सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है।
भावार्थः––जिनमत में उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा जिसके हो वह सम्यक्त्व से
च्युत नहीं होता है।। १४।।
आगे अज्ञान, मिथ्यातव, कुचारित्र त्यागका उपदेश करते हैंः––
आगे अज्ञान, मिथ्यातव, कुचारित्र त्यागका उपदेश करते हैंः––
अण्णांणं मिच्छत्तं वज्जह णाणे विसुद्धसम्मत्ते।
अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए।। १५।।
अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए।। १५।।
अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्ज्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे।
अथ मोहं सारंभं परिहर धर्मे अहिंसायाम्।। १५।।
अथ मोहं सारंभं परिहर धर्मे अहिंसायाम्।। १५।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि हे भव्य! तू ज्ञान के होने पर तो अज्ञानका त्याग कर,
विशुद्ध सम्यक्त्व के होनेपर मिथ्यात्वका त्याग कर और अहिंसा लक्षण धर्म के होने पर
आरंभसहित मोह को छोड़।
भावार्थः––सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की प्राप्ति होनेपर फिर मिथ्यादर्शन–ज्ञान–
चारित्रमें मत प्रवर्तो, इसप्रकार उपदेश है।। १५।।
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सद्दर्शने उत्साह, श्रद्धा, भावना, सेवा अने
स्तुति ज्ञानमार्गथी जे करे, छोडे न जिनसम्यक्त्वने। १४।
अज्ञान ने मिथ्यात्व तज, लही ज्ञान, समकित शुद्धने
स्तुति ज्ञानमार्गथी जे करे, छोडे न जिनसम्यक्त्वने। १४।
अज्ञान ने मिथ्यात्व तज, लही ज्ञान, समकित शुद्धने
वळी मोह तज सारंभ तुं, लहीने अहिंसाधर्मने। १५।