होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते।। १६।।
भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे।। १६।।
अर्थः––हे भव्य! तू संग अर्थात् परिग्रह का त्याग जिसमें हो ऐसी दीक्षा ग्रहण कर और
भले प्रकार संयम स्वरूप भाव होनेपर सम्यक्प्रकार तप में प्रवर्तन कर जिससे तेरे मोह रहित
वीतरागपना होनेपर निर्मल धर्म–शुक्लध्यान हो।
ध्यान से केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिये इसप्रकार उपदेश है।। १६।।
वज्झंति मूढजीवा
वध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वाबुद्ध्युदयेन।। १७।।
अर्थः––मूढ़ जीव अज्ञान और मोह अर्थात् मिथ्यात्व के दोषोंसे मलिन जो मिथ्यादर्शन
अर्थात् कुमत के मार्ग में मिथ्यात्व और अबुद्धि अर्थात् अज्ञान के उदयसे प्रवृत्ति करते हैं।
निर्मोह वीतरागत्व होतां ध्यान निर्मळ होय छे। १६।
जे वर्तता अज्ञानमोहमले मलिन मिथ्यामते,