जिसमें पापाचरणका लेश नहीं है, निकल अर्थात् कला से निःक्रांत है, सम्पूर्ण है, श्रावकधर्म की
तरह एकदेश नहीं है।। २७।।
पंच समिदि तय गुत्ती संजमचरणं णिरायारं।। २८।।
पंच समितयः तिस्रः गुप्तयः संयमचरणं निरागारम्।। २८।।
अर्थः––पाँच इन्द्रियोंका संवर, पाँच व्रत ये पच्चीस क्रियाके सद्भाव होनेपर होते हैं,
पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे निरागार संयमचरण चारित्र होता है।। २८।।
ण करेदि रायदोसे पंचेंदियसंवरो भणिओ।। २९।।
न करोति रागद्वेषौ पंचेन्द्रियसंवरः भणितः।। २९।।
अर्थः––अमनोज्ञ तथा मनोज्ञ ऐसे पदार्थ जिनको लोग अपने मानें ऐसे सजीवद्रव्य स्त्री
पुजादिक और अजीवद्रव्य धन धान्य आदि सब पुद्गल द्रव्य आदिमें रागद्वेष न करे वह पाँच
इन्द्रियोंका संवर कहा है।
वळी पांच समिति, त्रिगुप्ति–अण–आगार संयमचरण छे। २८।
सुमनोज्ञ ने अमनोज्ञ जीव–अजीवद्रव्योने विषे