९०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––इन्द्रियगोचर सजीव अजीव द्रव्य हैं, ये इन्द्रियोंके ग्रहण में आते हैं, इनमें
यह प्राणी किसीको इष्ट मानकर राग करता है, किसी को अनिष्ट मानकर द्वेष करता है,
इसप्रकार राग–द्वेष मुनि नहीं करते हैं उनके संयमचरण चारित्र होता है।।२९।।
आगे पाँच व्रतोंका स्वरूप कहते हैंः––
हिंसाविरई अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य।
तुरियं अबंभविरई पंचम संगम्मि विरई य।। ३०।।
हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिः अदत्तविरतिश्व।
तुर्यं अब्रह्मविरतिः पंचम संगे विरतिः च।। ३०।।
अर्थः––प्रथम तो हिंसा से विरति अहिंसा है, दूसरा असत्यविरति है, तीसरा
अदत्तविरति है, चौथा अबह्मविरति है और पाँचवाँ परिग्रहविरति है।
भावार्थः––इन पाँच पापोंका सर्वथा त्याग जिनमें होता है वे पाँच महाव्रत कहलाते हैं।।
३०।।
आगे इनको महाव्रत क्यों कहते हैं वह बताते हैंः––
साहंति जं महल्ला आयरियं जं महल्लपुव्वेहिं।
जं च महल्लाणि तदो १महव्वया इत्तहे याइं।। ३१।।
साधयंति यन्महांतः आचरितं यत् महत्पूर्वैः।
यच्च महन्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि।। ३१।।
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१ पाठान्तरः–– ’महव्वया इत्तहे याइं‘ के स्थान पर ’महव्वायाइं तहेयाइं‘
हिंसाविराम, असत्य तेम अद्रत्तथी विरमण अने
अब्रह्मविरमण, संगविरमण – छे महाव्रत पांच ए। ३०।
मोटा पुरुष साधे, पूरव मोटा जनोए आचर्यां,
स्वयमेव वळी मोटां ज छे, तेथी महाव्रत ते ठर्यां। ३१।