चारित्रपाहुड][९३ विमोचित्तावास अर्थात् जिसको लोगों ने किसी कारण से छोड़ दिया हो इसप्रकारसे गृह ग्रामादिकमें निवास करना, परोपरोध अर्थात् जहाँ दूसरेकी रुकावट न हो, वस्तिकादिकको अपना कर दूसरोंको रोकना, इसप्रकार नहीं करना, एषणाशुद्धि अर्थात् आहार शुद्ध लेना और साधर्मियोंसे विसंवाद न करना। ये पाँच भावना तृतीय महाव्रतकी है। भावार्थः––मुनियोंकि वस्तिकाय में रहना और आहार लेना ये दो प्रवृत्तियाँ अवश्य होती हैं। लोक में इन ही के निमित्त अदत्त का आदान होता है। मुनियोंको ऐसे स्थान पर रहना चाहिये जहाँ अदत्त का दोष न लगे और आहार भी इस प्रकार लें जिसमें अदत्तका दोष न लगे तथा दोनों की प्रवृत्तिमें साधर्मी आदिकसे विसंवाद उत्पन्न न हो। इसप्रकार ये पाँच भावना कही हैं, इनके होने से अचौर्य महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३४।। आगे ब्रह्मचर्य व्रत की भावना कहते हैंः––
पुट्ठियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि।। ३५।।
पौष्टिकरसैः विरतः भावनाः पंचापि तुर्ये।। ३५।।
अर्थः––स्त्रियोंका अवलोकन अर्थात् राग भाव सहित देखना, पूर्वकालमें भोगे हुए
भोगोंका स्मरण करना, स्त्रियोंसे संसक्त वस्तिकामें रहना, स्त्रियोंकी कथा करना, पौष्टिक
रसोंका सेवन करना, इन पाँचोंसे विकार उत्पन्न होता है, इसलिये इनसे विरक्त रहना, ये
पाँच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं।
भावार्थः––कामविकार के निमित्तोंसे ब्रह्मचर्यव्रत भंग होता है, इसलिये स्त्रियों को
महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३५।।
महिलानिरीक्षण–पूर्वरतिस्मृति–निकटवास, त्रियाकथा,