ग्रामादिकमें निवास करना, परोपरोध अर्थात् जहाँ दूसरेकी रुकावट न हो, वस्तिकादिकको
अपना कर दूसरोंको रोकना, इसप्रकार नहीं करना, एषणाशुद्धि अर्थात् आहार शुद्ध लेना और
साधर्मियोंसे विसंवाद न करना। ये पाँच भावना तृतीय महाव्रतकी है।
चाहिये जहाँ अदत्त का दोष न लगे और आहार भी इस प्रकार लें जिसमें अदत्तका दोष न लगे
तथा दोनों की प्रवृत्तिमें साधर्मी आदिकसे विसंवाद उत्पन्न न हो। इसप्रकार ये पाँच भावना
कही हैं, इनके होने से अचौर्य महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३४।।
पुट्ठियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि।। ३५।।
पौष्टिकरसैः विरतः भावनाः पंचापि तुर्ये।। ३५।।
अर्थः––स्त्रियोंका अवलोकन अर्थात् राग भाव सहित देखना, पूर्वकालमें भोगे हुए
भोगोंका स्मरण करना, स्त्रियोंसे संसक्त वस्तिकामें रहना, स्त्रियोंकी कथा करना, पौष्टिक
रसोंका सेवन करना, इन पाँचोंसे विकार उत्पन्न होता है, इसलिये इनसे विरक्त रहना, ये
पाँच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं।
महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३५।।
महिलानिरीक्षण–पूर्वरतिस्मृति–निकटवास, त्रियाकथा,