Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 36-37 (Charitra Pahud).

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९४] [अष्टपाहुड
आगे पाँच अपरिग्रह महाव्रत की भावना कहते हैंः––
अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरसरूवगंधेसु।
रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होंति।। ३६।।
अपरिग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरसरूपगंधेषु।
रागद्वेषादीनां परिहारो भावनाः भवन्ति।। ३६।।

अर्थः
––शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध ये पाँच इन्द्रियोंके विषय समनोज्ञ अर्थात् मन को
अच्छे लगने वाले और अमनोज्ञ अर्थात् मन को बुरे लगने वाले हों तो इन दोनों में राग द्वेष
आदि न करना परिग्रहत्यागव्रत की ये पाँच भावना है।

भावार्थः––पाँच इन्द्रियोंके विषय स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, वर्ण, शब्द ये हैं, इनमें इष्ट–
अनिष्ट बुद्धिरूप राग–द्वेष नहीं करे तब अपरिग्रहव्रत दृढ़ रहता है इसलिये ये पाँच भावना
अपरिग्रह महाव्रत की कही गई हैं।। ३६।।

आगे पाँच समितियों को कहते हैंः––
इरिया भासा एसण जा सा आदाण चे व णिक्खेवो।
संजमसोहिणिमित्तं खंति जिणा पंच समिदीओ।। ३७।।
ईर्या भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेपः।
संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनाः पंच समितीः।। ३७।।

अर्थः
––ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ संयमकी
शुद्धताके लिये कारण हैं, इसप्रकार जिनदेव कहते हैं।
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१ पाठान्तरः– संजमसोहिणिमित्ते।
मनहर–अमनहर स्पर्श–रस–रूप–गंध तेमज शब्दमां,
करवा न रागविरोध, व्रत पंचम तणी ए भावना। ३६।

ईर्या, सुभाषा, एषणा, आदान ने निक्षेप–ए,
संयम तणी शुद्धि निमित्ते समिति पांच जिनो कहे। ३७।