चारित्रपाहुड][९५
भावार्थः––मुनि पंचमहाव्रतरूप संयमका साधन करते हैं, उस संयमकी शुद्धता के लिये पाँच समितिरूप प्रवर्तते हैं, इसी से इसका नाम सार्थक है –– ‘सं’ अर्थात् सम्यक्प्रकार ‘इति’ अर्थात् प्रवृत्ति जिसमें हो सो समिति है। चलते समय जूडा प्रमाण (चार हाथ) पृथवी देखता हुआ चलता है, बोले तब हितमित वचन बोलता है, लेवे तो छियालिस दोष, बत्तीस अंतराय टालकर, चौदह मलदोष रहित शुद्ध आहार लेता है, धर्मोपकरणोंको उठाकर ग्रहण करे सो यत्नपूर्वक लेते है; ऐसे ही कुछ क्षेपण करें तब यत्न पूर्वक क्षेपण करते हैं, इसप्रकार निष्प्रमाद वर्ते तब संयमका शुद्ध पालन होता है, इसीलिये पंचसमितिरूप प्रवृत्ति कही है। इसप्रकार संयमचरण चारित्रकी प्रवृत्तिका वर्णन किया।। ३७।। अब आचार्य निश्चियचारित्रको मन में धारण कर ज्ञान का स्वरूप कहते हैंः––
णाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि।। ३८।।
ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि।। ३८।।
अर्थः––जिनमार्गमें जिनेश्वरदेवने भव्यजीवोंके संबोधनेके लिये जैसा ज्ञान और ज्ञानका
स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसको हे भव्यजीव! तू जान।
भावार्थः––ज्ञानको और ज्ञानके स्वरूपको अन्य मतवाले अनेक प्रकारसे कहते हैं, वैसा
स्वरूप है वही निर्बाध सत्यार्थ है और ज्ञान है वही आत्मा है तथा आत्माका स्वरूप है, उसको
जानकर उसमें स्थिरता भाव करे, परद्रव्योंसे रागद्वेष नहीं करे वही निश्चयचारित्र है, इसलिये
पूर्वोक्त महाव्रतादिकी प्रवृत्ति करके इस ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होना इसप्रकार उपदेश है।।
३८।।