१०२] [अष्टपाहुड
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि––मैं आचार्योंको नमस्कार कर, छहकायके जीवों को सुखके करने वाले, जिनमार्गमें जिनदेवने जैसा कहा है वैसे, जिसमें समस्त लोक के हितका ही प्रयोजन है ऐसा ग्रन्थ संक्षेपसे कहूँगा, उसको हे भव्य जीवों! तुम सुनो। जिन आचार्यों की वंदना की वे आचार्य कैसे हैं? बहुत शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाले हैं, जिनका तपश्चरण सम्यक्त्व और संयमसे शुद्ध है, कषायरूप मलसे रहित हैं इसलिये शुद्ध हैं। भावार्थः––यहाँ आचार्यों की वंदना की, उनके विशेषणोंसे जाना जाता है कि– गणधरादिक से लेकर अपने गुरुपर्यंत सबकी वंदना है और ग्रन्थ करने की प्रतीज्ञा की उसके विशेषणों से जाना जाता है कि–– जो बोधपाहुड ग्रन्थ करेंगे वह लोगों को धर्ममार्ग में सावधान कर कुमार्ग छुड़ाकर अहिंसा धर्मका उपदेश करेगा।। ३।। आगे इस ‘बोधपाहुड’ में ग्यारह स्थल बांधे हैं उनके नाम कहते हैंः––
भणियं सुवीयरायं जिणमुद्रा णाणमादत्थं।। ३।।
पावज्जगुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो।। ४।।
भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमात्मार्थ१।। ३।।
प्रव्रज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्याः यथाक्रमशः।। ४।।
वीतराग जिननुं बिंब, जिनमुद्रा, स्वहेतुक ज्ञान जे। ३।