बोधपाहुड][१०३
अर्थः––१ – आयतन, २– चैत्यगृह, ३– जिनप्रतिमा, ४– दर्शन, ५– जिनबिंब। कैसा हैं
जिनबिंब? भले प्रकार वीतराग है, ६– जिनमुद्रा राग सहित नहीं होती हैम ७– ज्ञान पद कैसा
है? आत्मा ही है अर्थ अर्थात् प्रयोजन जिसमें, इसप्रकार सात तो ये निश्चय, वीरतागदेव ने
कहे वैसे तथा अनुक्रम से जानना और ८– देव, ९– तीर्थ, १०– अरहंत तथा गुणसे विशुद्ध ११–
प्रवज्या, ये चार जो अरहंत भगवानने कहे वैसे इस ग्रन्थमें जानना, इसप्रकार ये ग्यारह स्थल
हुए।। ३–४।।
भावार्थः––यहाँ आशय इसप्रकार जानना चाहिये कि––धर्ममार्गमें कालदोषसे अनेक मत
हो गये हैं तथा जैनमतमें भी भेद हो गये हैं, उनमें आयतन आदि में विपर्यय (विपरीतपना)
हुआ है, उनका परमार्थभूत सच्चा स्वरूप तो लोग जानते नहीं हैं और धर्मके लोभी होकर
जैसी बाह्य प्रवृत्ति देखते हैं उसमें ही प्रवर्तने लग जाते हैं, उनको संबोधने के लिये यह
‘बोधपाहुड’ बनाया है। उसमें आयतन आदि ग्यारह स्थानोंका परमार्थभूत सच्चा स्वरूप जैसा
सर्वज्ञदेवने कहा है वैसा कहेंगे, अनुक्रम से जैसे नाम कहें हैं वैसे ही अनुक्रमसे इनका
व्यख्यान करेंगे सो जानने योग्य है।। ३–४।।
[१] आगे प्रथम ही जो आयतन कहा उसका निरूपण करते हैंः––
मणवयणकायदव्वा आयत्ता१ जस्स इन्दिया विसया।
आयदणं जिणमग्गे णिद्दिट्ठं संजयं रूवं।। ५।।
मनो वचन काय द्रव्याणि आयत्ताः यस्य ऐन्द्रियाः विषयाः।
आयतनं जिनमार्गे निर्दिष्टं संयतं रूपम्।। ५।।
अर्थः––जिनमार्ग में संयमसहित मुनिरूप है उसे ‘आयतन’ कहा है। कैसा है मुनिरूप?
––जिसके मन–वचन–काय द्रव्यरूप है वे, तथा पांच इन्द्रियोंके स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द
ये विषय हैं वे, ‘आयत्ता’ अर्थात् अधीन हैं –वशीभूत हैं। उनके (मन–वचन–काय और पांच
इन्द्रियोंके विषय) संयमी मुनि आधीन नहीं है, वे मुनिके वशीभूत हैं। ऐसा संयमी है वह
‘आयतन’ है।। ५।।
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१ सं० प्रति में ‘आसत्ता’ पाठ है जिसकी संस्कृत ‘आसक्ताः’ है।
आयत्त छे मन–वचन–काया इन्द्रिविषयो जेहने,
ते संयमीनुं रूप भाख्युं आयतन जिनशासने। ५।