Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 14 (Bodh Pahud).

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बोधपाहुड][१०९
धु्रव है––संसारसे मुक्त हो (उसी समय) एक समयमात्र गमन कर लोकके अग्रभाग जाकर
स्थित होजाते हैं, फिर चलाचल नहीं होते हैं ऐसी प्रतिमा ‘सिद्ध भगवान’ हैं।

भावार्थः––पहिले दो गाथाओंमें तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनियोंकि देह सहित कही। इन
दो गाथाओंमें ‘ थिरप्रतिमा’ सिद्धोंकी कही, इसप्रकार जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा।
अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकारसे कल्पना करते हैं वह प्रतिमा वंदन करने योग्य नहीं है।

यहाँ प्रश्नः –––––यह तो परमार्थरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादिक की प्रतिमा की
वंदना करते हैं वह कैसे?
उसका समाधानः ––जो बाह्य व्यवहार में मतान्तरके भेद से अनेक रीति प्रतिमा की प्रवृत्ति है
यहाँ परमार्थ को प्रधान कर कहा है और व्यवहार है वहाँ जैसी प्रतिमाका परमार्थरूप हो उसी
को सूचित करता हो वह निर्बाध है। जैसा परमार्थरूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप
व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रशस्त है; व्यवहारी जीवोंके यह भी वंदन करने योग्य है। स्याद्वाद
न्यायसे सिद्ध किये गये परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है।। १२–१३।।

इसप्रकार जिनप्रतिमा का स्वरूप कहा।
[४] आगे दर्शन का स्वरूप कहते हैंः––
दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संजमं सुधम्मं च।
णिग्गंधं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं।। १४।।
दर्शयति मोक्षमार्गं सम्यक्त्वं संयमं सुधर्मं च।
निर्ग्रंथं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम्।। १४।।

अर्थः
––जो मोक्ष मार्ग को दिखाता है वह ‘दर्शन’ है, मोक्षमार्ग कैसा है?––सम्यक्त्व
अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वस्वरूप है, संयम अर्थात् चारित्र–पंचमहाव्रत, पंचसमिति,
तीन गुप्ति ऐसे तेरह प्रकार चारित्ररूप है, सुधर्म अर्थात् उत्तम–क्षमादिक दसलक्षण धर्मरूप है,
निर्ग्रन्थरूप है–बाह्याभ्यंतर परिग्रह रहित है,
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दर्शावतुं संयम–सुदग–सद्धर्मरूप, निर्ग्रंथ ने
ज्ञानात्म मुक्तिमार्ग, ते दर्शन कह्युं जिनशासने। १४।