दो विशेषण दर्शन के भी होते हैं, क्योंकि दर्शन है सो बाह्य तो इसकी मूर्ति निर्ग्रन्थ है और
अंतरंग ज्ञानमयी है। इसप्रकार मुनिके रूपको जिनागम में ‘दर्शन’ कहा है तथा ऐसे रूपके
श्रद्धानरूप सम्यक्त्वस्वरूप को ‘दर्शन’ कहते हैं।
मूर्तिको दर्शन कहना लोकमें प्रसिद्ध है।। १४।।
तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं।। १५।।
तथा दर्शनं हि सम्यक् ज्ञानमयं भवति रूपस्थम्।। १५।।
अर्थः––जैसे फूल गंधमयी है, दूध घृतमयी है वैसे ही दर्शन अर्थात् मत में सम्यक्त्व है।
कैसा है दर्शन? अंतरंग में ज्ञानमयी है और बाह्य रूपस्थ है––मुनि का रूप है तथा उत्कृष्ट
श्रावक, अर्जिकाका रूप है।
जानना। ये होनों ही ज्ञानमयी हैं, यथार्थ तत्त्वार्थका जाननेरूप सम्यक्त्व जिसमें पाया जाता है,
इसीलिये फूलमें गंधका और दूधमें घृतका दृष्टांत युक्त है; इसप्रकार दर्शनका रूप कहा।
अन्यमतमें तथा कालदोष से जिनमतमें जैनाभास भेषी अनेक प्रकार अन्यथा कहते हैं जो
कल्याणरूप नहीं हैं, संसारका कारण है।। १५।।