बोधपाहुड][१११
जिणबिंबं णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च।
जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा।। १६।।
जं देइ दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा।। १६।।
जिनबिंबं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च।
यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे।। १६।।
यत् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे।। १६।।
अर्थः––जिनबिंब कैसा है? ज्ञानमयी है, संयमसे शुद्ध है, अतिशयकर वीतराग है,
कर्मके क्षयका कारण और शुद्ध है––इसप्रकार की दीक्षा और शिक्षा देता है।
भावार्थः––जो ‘जिन’ अर्थात् अरहन्त सर्वज्ञका प्रतिबिंब कहलाता है; उसकी जगह
उसके जैसी ही मानने योग्य हो इसप्रकार आचार्य हैं वे दीक्षा अर्थात् व्रतका ग्रहण और शिक्षा
अर्थात् विधान बताना, ये दोनों भव्य जीवोंको देते हैं। इसलिये १––प्रथम तो वह आचार्य
ज्ञानमयी हो, जिनसूत्रका उनको ज्ञान हो, ज्ञान बिना यथार्थ दीक्षा–शिक्षा कैसे हो? और २–
–आप संयम से शुद्ध हो, यदि इसप्रकार न हो तो अन्य को भी संयमसे शुद्ध नहीं करा
सकते। ३––अतिशय–विशेषतया वीतराग न हो तो कषायसहित हो, तब दीक्षा, शिक्षा यथार्थ
नहीं दे सकते हैं; अतः इसप्रकार आचार्य को जिनका प्रतिबिम्ब जानना।। १६।।
आगे फिर कहते हैंः––
अर्थात् विधान बताना, ये दोनों भव्य जीवोंको देते हैं। इसलिये १––प्रथम तो वह आचार्य
ज्ञानमयी हो, जिनसूत्रका उनको ज्ञान हो, ज्ञान बिना यथार्थ दीक्षा–शिक्षा कैसे हो? और २–
–आप संयम से शुद्ध हो, यदि इसप्रकार न हो तो अन्य को भी संयमसे शुद्ध नहीं करा
सकते। ३––अतिशय–विशेषतया वीतराग न हो तो कषायसहित हो, तब दीक्षा, शिक्षा यथार्थ
नहीं दे सकते हैं; अतः इसप्रकार आचार्य को जिनका प्रतिबिम्ब जानना।। १६।।
आगे फिर कहते हैंः––
तस्स य करह पणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं।
जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो।। १७।।
जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो।। १७।।
तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां च विनयं वात्सल्यम्।
यस्य च दर्शनंज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः।। १७।।
यस्य च दर्शनंज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः।। १७।।
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जिनबिंब छे, जे ज्ञानमय, वीतराग, संयमशुद्ध छे,
दीक्षा तथा शिक्षा करमक्षयहेतु आपे शुद्ध जे। १६।
तेनी करो पूजा विनय–वात्सल्य–प्रणमन तेहने,
दीक्षा तथा शिक्षा करमक्षयहेतु आपे शुद्ध जे। १६।
तेनी करो पूजा विनय–वात्सल्य–प्रणमन तेहने,
जेने सुनिश्चित ज्ञान, दर्शन, चेतना परिणाम छे। १७।