११२] [अष्टपाहुड
अर्थः––इसप्रकार पूर्वोक्त जिनबिंब को प्रणाम करो और सर्वप्रकार पूजा करो, विनय
करो, वात्सल्य को, क्योंकि – उसके ध्रुव अर्थात् निश्चयसे दर्शन–ज्ञान पाया जाता है और
चेतनाभाव है।
भावार्थः––दर्शन–ज्ञानमयी चेतनाभाव सहित जिनबिंब आचार्य हैं, उनको प्रणामादिक
करना। यहाँ परमार्थ प्रधान कहा है, जड़ प्रतिबिंब की गौणता है ।। १७।।
आगे फिर कहते हैंः––
तववयगुणेहिं सुद्धो जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं।
अरहन्तमुद्द एसा दायारी दिक्खसिक्खा य।। १८।।
तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम्।
अर्हन्मुद्रा एषा दात्री दीक्षाशिक्षाणां च।। १८।।
अर्थः––जो तप, व्रत और गुण अर्थात् उत्तर गुणोंसे शुद्ध हों, सम्यग्ज्ञान से पदार्थों हो
जानते हों, सम्यग्दर्शनसे पदार्थोंको देखते हों इसीलिये जिनके शुद्ध सम्यक्त्व है इसप्रकार
जिनबिंब आचार्य हैं। यह दीक्षा – शिक्षा की देनेवाली अरहंत मुद्रा है।
भावार्थः––इसप्रकार जिनबिंब है वह जिन मुद्रा ही है––––ऐसा जिनबिंब का स्वरूप
कहा है।। १८।।
[६] आगे जिनमुद्रा का स्वरूप कहते हैंः––
दढसंजममुद्राए इन्दियमुद्रा कसायदिढमुद्रा।
मुद्रा इह णाणाए जिणमुद्रा एरिसा भणिया।। १९।।
द्रढसंयममुद्रया इन्द्रियमुद्रा कषायद्रढमुद्रा।
मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईद्रशी भणिता।। १९।।
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तपव्रतगुणोथी शुद्ध, निर्मळ सुदग सह जाणे–जुए,
दीक्षा–सुशिक्षादायिनी अर्हंतमुद्रा तेह छे। १८।
इन्द्रिय–कषायनिरोधमय मुद्रा सुद्रढ संयममयी,
–आ उक्त मुद्रा ज्ञानथी निष्पन्न, जिनमुद्रा कही। १९।