बोधपाहुड][११३
अर्थः––दृढ़ अर्थात् वज्रवत चलाने पर भी न चले ऐसा संयम इन्द्रिय मनका वश करना, षट्जीव निकाय की रक्षा करना, इसप्रकार संयमरूप मुद्रा से तो पाँच इन्द्रियोंको विषयों में न प्रवर्ताना, उनका संकोच करना यह तो इन्द्रियमुद्रा है ओर इसप्रकार संयम द्वारा ही जिसमें कषायोंकी प्रवृत्ति नहीं है ऐसी कषायदृढ़ मुद्रा है, तथा ज्ञानका स्वरूप में लगाना, इसप्रकार ज्ञान द्वारा सब बाह्यमुद्रा शुद्ध होती है। इसप्रकार जिनशासन में ऐसी ‘जिनमुद्रा’ होती है। भावार्थः––१– जो संयम सहित हो, २–जिनके इन्द्रियाँ वश में हों, ३–कषायोंकी प्रवृत्ति न होती हो और ४–ज्ञानको स्वरूप में लगाता हो, ऐसा मुनि हो सो ही ‘जिनमुद्रा’ है।। १९।। [७] आगे ज्ञान का निरूपण करते हैं।
णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं।। २०।।
अर्थः––संयम से संयुक्त और ध्यान के योग्य इसप्रकार जो मोक्षमार्ग उसका लक्ष्य
अर्थात् लक्षणे योग्य–जाननेयोग्य निशाना जो अपना निजस्वरूप वह ज्ञान द्वारा पाया जाता है,
इसलिये इसप्रकार के लक्ष्यको जानने के ज्ञान को जानना।
भावार्थः––संयम अंगीकार कर ध्यान करे और आत्माका स्वरूप न जाने तो मोक्षमार्ग
।।२०।।
आगे इसी को दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैंः––