११८] [अष्टपाहुड
जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं तवं णाणं।
तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।। २७।।
तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।। २७।।
यत् निर्मलं सुधर्मं, सम्यक्त्वं संयमं तपः ज्ञानम्।
तत् तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन।। २७।।
तत् तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन।। २७।।
अर्थः––जिनमार्ग में वह तीर्थ है जो निर्मल उत्तम क्षमादिक धर्म तथा तत्त्वार्थ–
श्रद्धानलक्षण, शंकादिमलरहित निर्मल सम्यक्त्व तथा इन्द्रिय–मनको वशमें करना, षट्कायके
जीवोंकी रक्षा करना, इसप्रकार जो निर्मल संयम, तथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान,
रसपरित्याग, विवक्तशय्यासन, कायक्लेश, ऐसे बाह्य छह प्रकार के तप और प्रायश्चित, विनय,
वैेयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ऐसे छह प्रकार के अंतरंग तप––इसप्रकार बारह प्रकारके
निर्मल तप और जीव–अजीव आदि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान ये ‘तीर्थ’ हैं, ये भी यदि शांतभाव
सहित हों, कषायभाव न हों तब निर्मल तीर्थ हैं, क्योंकि यदि ये क्रोधादि भाव सहित हों तो
मलिनता हो और निर्मलता न रहे।
भावार्थः––जिन मार्ग में तो इसप्रकार तीर्थ कहा है। लोग सागर–नदियों को तीर्थ
श्रद्धानलक्षण, शंकादिमलरहित निर्मल सम्यक्त्व तथा इन्द्रिय–मनको वशमें करना, षट्कायके
जीवोंकी रक्षा करना, इसप्रकार जो निर्मल संयम, तथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान,
रसपरित्याग, विवक्तशय्यासन, कायक्लेश, ऐसे बाह्य छह प्रकार के तप और प्रायश्चित, विनय,
वैेयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ऐसे छह प्रकार के अंतरंग तप––इसप्रकार बारह प्रकारके
निर्मल तप और जीव–अजीव आदि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान ये ‘तीर्थ’ हैं, ये भी यदि शांतभाव
सहित हों, कषायभाव न हों तब निर्मल तीर्थ हैं, क्योंकि यदि ये क्रोधादि भाव सहित हों तो
मलिनता हो और निर्मलता न रहे।
भावार्थः––जिन मार्ग में तो इसप्रकार तीर्थ कहा है। लोग सागर–नदियों को तीर्थ
मानकर स्नान करके पवित्र होना चाहते हैं; वहाँ शरीरका बाह्यमल इनसे कुछ उतरता है परन्तु
शरीरके भीतरका धातु–उपधातुरूप अन्तमर्ल इनसे उतरता नहीं है, तथा ज्ञानावरण आदि
कर्मरूप मल और अज्ञान राग–द्वेष–मोह आदि भाव कर्मरूप आत्मा के अन्तरमल हैं वह तो
इनसे कुछ भी उतरते नहीं हैं, उलटा हिंसादिक से पापकर्मरूप मल लगता है; इसलिये सागर
नदी आदिको तीर्थ मानना भ्रम है। जिससे तिरे सो ‘तीर्थ’ है, ––इसप्रकार जिनमार्ग में कहा
है, उसे ही संसार समुद्र से तारने वाला जानना।। २७।।
इसप्रकार तीर्थ का स्वरूप कहा।
शरीरके भीतरका धातु–उपधातुरूप अन्तमर्ल इनसे उतरता नहीं है, तथा ज्ञानावरण आदि
कर्मरूप मल और अज्ञान राग–द्वेष–मोह आदि भाव कर्मरूप आत्मा के अन्तरमल हैं वह तो
इनसे कुछ भी उतरते नहीं हैं, उलटा हिंसादिक से पापकर्मरूप मल लगता है; इसलिये सागर
नदी आदिको तीर्थ मानना भ्रम है। जिससे तिरे सो ‘तीर्थ’ है, ––इसप्रकार जिनमार्ग में कहा
है, उसे ही संसार समुद्र से तारने वाला जानना।। २७।।
इसप्रकार तीर्थ का स्वरूप कहा।
[१०] आगे अरहंत का स्वरूप कहते हैंः–– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
निर्मळ सुदर्शन–तपचरण–सद्धर्म–संयम–ज्ञानने,
जो शान्तभावे युक्त तो, तीरथ कह्युं जिनशासने। २७।
जो शान्तभावे युक्त तो, तीरथ कह्युं जिनशासने। २७।