तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।। २७।।
तत् तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन।। २७।।
श्रद्धानलक्षण, शंकादिमलरहित निर्मल सम्यक्त्व तथा इन्द्रिय–मनको वशमें करना, षट्कायके
जीवोंकी रक्षा करना, इसप्रकार जो निर्मल संयम, तथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान,
रसपरित्याग, विवक्तशय्यासन, कायक्लेश, ऐसे बाह्य छह प्रकार के तप और प्रायश्चित, विनय,
वैेयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ऐसे छह प्रकार के अंतरंग तप––इसप्रकार बारह प्रकारके
निर्मल तप और जीव–अजीव आदि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान ये ‘तीर्थ’ हैं, ये भी यदि शांतभाव
सहित हों, कषायभाव न हों तब निर्मल तीर्थ हैं, क्योंकि यदि ये क्रोधादि भाव सहित हों तो
मलिनता हो और निर्मलता न रहे।
शरीरके भीतरका धातु–उपधातुरूप अन्तमर्ल इनसे उतरता नहीं है, तथा ज्ञानावरण आदि
कर्मरूप मल और अज्ञान राग–द्वेष–मोह आदि भाव कर्मरूप आत्मा के अन्तरमल हैं वह तो
इनसे कुछ भी उतरते नहीं हैं, उलटा हिंसादिक से पापकर्मरूप मल लगता है; इसलिये सागर
नदी आदिको तीर्थ मानना भ्रम है। जिससे तिरे सो ‘तीर्थ’ है, ––इसप्रकार जिनमार्ग में कहा
है, उसे ही संसार समुद्र से तारने वाला जानना।। २७।।
जो शान्तभावे युक्त तो, तीरथ कह्युं जिनशासने। २७।