चउणागदि संपदिमे
लोकव्यवहार में नाम आदि की प्रवृत्ति इसप्रकार है––जो जिस वस्तु का नाम हो वैसा गुण न
हो उसको नामनिक्षेप कहते हैं। जिस वस्तुका जैसा आकार हो उस आकार की काष्ठ–
पाषाणादिककी मूर्ति बनाकर उसका संकल्प करे उसको स्थापना कहते हैं। जिस वस्तुकी
पहली अवस्था हो उसहीको आगे की अवस्था प्रधान करके कहें उसको द्रव्य कहते हैं। वर्तमान
में जो अवस्था हो उसको भाव कहते हैं। ऐसे चार निक्षेपकी प्रवृत्ति है। उसका कथन शास्त्र में
भी लोगोंको समझाने के लिये किया है। जो निक्षेप विधान द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्यको भाव न
समझे; नाम को नाम समझे, स्थापना को स्थापना समझे, द्रव्य को द्रव्य समझे, भाव को भाव
समझे, अन्य को अन्य समझे, अन्यथा तो ‘व्यभिचार’ नामक दोष आता है। उसे दूर करने के
लिये लोगों को यथार्थ समझने को शास्त्र में कथन है। किन्तु यहाँ वैसा निक्षेपका कथन नहीं
समझना। वहाँ तो निश्चय की प्रधानता से कथन है सो जैसा अरहंतका नाम है वैसा ही गुण
सहित नाम जानना, जैसी उनकी देह सहित मूर्ति है वही स्थापना जानना, जैसा उनका द्रव्य
है वैसा द्रव्य जानना और जैसा उनका भाव है वैसा ही भाव जानना ।। २८।।
२ ‘सगुणपज्ज्या’ इस पद की छाया में ‘स्वगुण पर्यायः’ स० प्रति में है।
आगति व सम्पदा ऐसे ये भाव अरहंत को बतलाते हैं।