१२०] [अष्टपाहुड
दंसण अणंत णाणे मोक्खो णट्ठट्ठकम्मबंधेण।
णिरुवमगुणमारुढो अरहंतो एरिसो होइ।। २९।।
णिरुवमगुणमारुढो अरहंतो एरिसो होइ।। २९।।
दर्शनं१ अनंतं ज्ञानं मोक्षः नष्टाष्टकर्मबंधेन।
निरूपमगुणमारूढः अर्हन् ईद्रशो भवति।। २९।।
अर्थः––जिनके दर्शन और ज्ञान ये तो अनन्त हैं, धाति कर्मके नाश से सब ज्ञेय
पदार्थोंको देखना व जानना है, अष्ट कर्मोंका बंध नष्ट होने से मोक्ष है। यहाँ सत्व की और
उदय की विवक्षा न लेना, केवली के आठोंही कर्मका बंध नहीं है। यद्यपि साता वेदनीय का
आस्रव मात्र बंध सिद्धांत में कहा है तथापि स्थिति– अनुभागरूप बंध नहीं है, इसलिये अबंध
तुल्य ही हैं। इसप्रकार आठों ही कर्म बंधके अभाव की अपेक्षा भाव मोक्ष कहलाता है और
उपमा रहित गुणोंसे आरूढ़ हैं–सहित हैं। इसप्रकार गुण छद्मस्थ में कहीं भी नहीं है, इसलिये
जिनमें उपमारहित गुण हैं ऐसे अरहंत होते हैं।
भावार्थः–केवल नाम मात्र ही अरहंत हों उसको अतहंत नहीं कहते हैं। इसप्रकार के
पदार्थोंको देखना व जानना है, अष्ट कर्मोंका बंध नष्ट होने से मोक्ष है। यहाँ सत्व की और
उदय की विवक्षा न लेना, केवली के आठोंही कर्मका बंध नहीं है। यद्यपि साता वेदनीय का
आस्रव मात्र बंध सिद्धांत में कहा है तथापि स्थिति– अनुभागरूप बंध नहीं है, इसलिये अबंध
तुल्य ही हैं। इसप्रकार आठों ही कर्म बंधके अभाव की अपेक्षा भाव मोक्ष कहलाता है और
उपमा रहित गुणोंसे आरूढ़ हैं–सहित हैं। इसप्रकार गुण छद्मस्थ में कहीं भी नहीं है, इसलिये
जिनमें उपमारहित गुण हैं ऐसे अरहंत होते हैं।
भावार्थः–केवल नाम मात्र ही अरहंत हों उसको अतहंत नहीं कहते हैं। इसप्रकार के
गुणों से सहित हों उनका नाम अरहंत कहते हैं।। २९।।
आगे फिर कहते हैंः––
आगे फिर कहते हैंः––
जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च।
हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो।। ३०।।
जराव्याधिजन्म मरणं चतुर्गतिगमनं पुण्यपापं च।
हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयश्वार्हन्।। ३०।।
हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयश्वार्हन्।। ३०।।
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१ सटीक सं० प्रति में ‘दर्शन अनंत ज्ञाने’ ऐसा सप्तमी अंत पाठ है।
निःसीम दर्शन–ज्ञान छे, वसुबंधलयथी मोक्ष छे,
निरूपम गुणे आरूढ छे–अर्हंत आवा होय छे। २९।
निरूपम गुणे आरूढ छे–अर्हंत आवा होय छे। २९।
जे पुण्य–पाप, जरा–जनम–व्याधि–मरण, गतिभ्रमणने
वळी दोषकर्म हणी थया ज्ञानाद्न, ते अर्हंत छे। ३०।