Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 32 (Bodh Pahud).

< Previous Page   Next Page >


Page 122 of 394
PDF/HTML Page 146 of 418

 

१२२] [अष्टपाहुड

गुणस्थानमार्गणाभिः च पर्याप्तिप्राणजीवस्थानैः।
स्थापना पंचविधैः प्रणेतव्या अर्हत्पुरुषस्य।। ३१।।
अर्थः––गुणस्थान, मार्गणास्थान, पर्याप्ति, प्राण और जीवस्थान इन पाँच प्रकार से
अरहंत पुरुष की स्थापना प्राप्त करना अथवा उसको प्रणाम करना चाहिये।

भावार्थः––स्थापनानिक्षेपमें काष्ठ – पाषाणादिक में संकल्प करना कहा है सो यहाँ
प्रधान नहीं है। यहाँ निश्चय की प्रधानता से कथन है। यहाँ गुणस्थान आदिक से अरहंत का
स्थापन कहा है।। ३१।।

आगे विशेष कहते हैंः––
तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो।
चउतीस अइसयगुणा होंति हु तस्सट्ठ पडिहारा।। ३२।।
त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिकः भवति अर्हन्।
चतुस्त्रिंशत् अतिशयगुणा भवंति स्फुटं तस्याष्टप्रातिहार्या।। ३२।।
अर्थः––गुणस्थान चौदह कहे हैं, उनमें सयोगकेवली नाम तेरहवाँ गुणस्थान है। उसमें
योगोंकी प्रवृत्तिसहित केवली सयोगकेवली अरहंत होता है। उनके चौंतीस अतिशय और आठ
प्रारिहार्य होते हैं, ऐसे तो गुणस्थान द्वारा ‘स्थापना’ अरहंत कहलाते हैं।

भावार्थः––यहाँ चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य कहने से तो समवशरण में
विराजमान तथा विहार करते हुए अरहंत हैं और ‘सयोग’ कहने से विहारी प्रवृत्ति और वचन
की प्रवृत्ति सिद्ध होती है। ‘केवली’ कहने से केवलज्ञान द्वारा सब तत्त्वोंका जानना सिद्ध होता
है। चौंतीस अतिशय इसप्रकार हैं–––जन्म से प्रकट होने वाले दसः––१–मलमूत्र का अभाव,
२–पसेवका अभाव, ३–धवल रुधिर होना, ४–समचतुरस्रसंस्थान, ५–वज्रवृषभनाराच संहनन,
६–सुन्दररूप, ७–सुगंध शरीर, ८–शुभलक्षण होना, ९–अनन्त बल, १०–मधुर वचन, इसप्रकार
दस होते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अर्हत् सयोगीकेवळीजिन तेरमे गुणस्थान छे;
चोत्रीश अतिशययुक्त ने वसु प्रातिहार्यसमेत छे। ३२।