बोधपाहुड][१२७
जराव्याधिदुःखरहितः आहारनीहार वर्जितः विमलः।
सिंहाणः खेलः स्वेदः नास्ति दुर्गन्धः च दोषः च।। ३७।।
दश प्राणाः पर्याप्तयः अष्टसहस्राणि च लक्षणानि भणितानि।
गोक्षीरशंखधवलं मांसं रुधिरं च सर्वांगे।। ३८।।
ईद्रशगुणैः सर्वः अतिशयवान सुपरिमलामोदः।
औदारिकश्च कायः अर्हत्पुरुषस्य ज्ञातव्यः।। ३९।।
अर्थः––अरहंत पुरुष के औदारिक काय इसप्रकार होता है–––जो जरा, व्याधि और
रोग इन संबंधी दुःख उसमें नहीं है, आहार–नीहार से रहित है, विमल अर्थात् मलमूत्र रहित
है; सिंहाण अर्थात् श्लेष्म, खेल अर्थात् थूक, पसेव और दुर्गंध अर्थात् जुगुप्सा, ग्लानि और
दुर्गंधादि दोष उसमें नहीं है।। ३७।।
दस तो उसमें प्राण हैं वे द्रव्यप्राण हैं, पूर्ण पर्याप्ति है, एक हजार आठ लक्षण हैं और
गोक्षीर अर्थात् कपूर अथवा चंदन तथा शंख जैसा उसमें सर्वांग धवल रुधिर और मांस है ।।
३८।।
इसप्रकार गुणोंसे संयुक्त सर्व ही देह अतिशयसहित निर्मल है, आमोद अर्थात् सुगंध
जिसमें इसप्रकार औदारिक देह अरहंत पुरुष के है।। ३९।।
भावार्थः––यहाँ द्रव्य निक्षेप नहीं समझना। आत्मासे भिन्न ही देहकी प्रधानता से ‘द्रव्य
अरहंतका’ वर्णन है।। ३७ – ३८– ३९।।
इसप्रकार द्रव्य अरहंतका वर्णन किया।
आगे भाव की प्रधानता से वर्णन करते हैंः–––
मयरायदोसरहिओ कसायमलवज्जिओ व सुविसुद्धो।
चित्तपरिणामरहिदो केवलभावे मुणेयव्वो।। ४०।।
मदरागदोषरहितः कषायमलवर्जितः च सुविशुद्धः।
चित्तपरिणामरहितः केवलभावे ज्ञातव्याः।। ४०।।
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मदरागद्वेषविहीन, त्यक्तकषायमळ सुविशुद्ध छे,
मनपरिणमनपरिमुक्त, केवळभावस्थित अर्हंत छे। ४०।