एतद्गुणगणयुक्तः गुणमारूढो भवति अर्हन्।। ३६।।
अर्थः––मनुष्यभव में पंचेन्द्रिय नाम के चौदहवें जीवस्थान अर्थात् जीव समास, उसमें
इतने गुणोंके समूहसे युक्त तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त अरहंत होते हैं।
भेद से चौदह हुए। इनमें चौदहवाँ ‘सैनी पंचेन्द्रिय जीवस्थान’ अरहंत के है। गाथा में सैनी का
नाम न लिया और मनुष्य का नाम लिया सो मनुष्य सैनी ही होते हैं, असैनी नहीं होते हैं
इसलिये मनुष्य कहने में ‘सैनी’ ही जानना चाहिये ।।३६।।
सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगुंछा य दोसो य।। ३७।।
गोखीरसंखधवलं मंसं रूहिरं च सव्वंगे।। ३८।।
ओरालियं च कायं णायव्वं अरहपुरिसस्स।। ३९।।
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अजुगुप्सिता, वणनासिकामळ–श्लेष्म–स्वेद, अदोष छे। ३७।
सर्वांग गोक्षीर–शंखतुल्य सुधवल मांस रूधिर छे; ३८।