Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 37-39.

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१२६] [अष्टपाहुड
मनुजभवे पंचेन्द्रियः जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशे।
एतद्गुणगणयुक्तः गुणमारूढो भवति अर्हन्।। ३६।।

अर्थः
––मनुष्यभव में पंचेन्द्रिय नाम के चौदहवें जीवस्थान अर्थात् जीव समास, उसमें
इतने गुणोंके समूहसे युक्त तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त अरहंत होते हैं।

भावार्थः––जीवसमास चौदह कहें हैं–––एकेन्द्रिय सूक्ष्म बादर २, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय,
चौइन्द्रिय ऐसे विकलत्रय –३, पंचेन्द्रिय असैनी सैनी २, ऐसे सात हुए; ये पर्याप्त अपर्याप्त के
भेद से चौदह हुए। इनमें चौदहवाँ ‘सैनी पंचेन्द्रिय जीवस्थान’ अरहंत के है। गाथा में सैनी का
नाम न लिया और मनुष्य का नाम लिया सो मनुष्य सैनी ही होते हैं, असैनी नहीं होते हैं
इसलिये मनुष्य कहने में ‘सैनी’ ही जानना चाहिये ।।३६।।
इसप्रकार जीवस्थान द्वारा ‘स्थापना अरहंत’ का वर्णन किया।

आगे द्रव्य की प्रधानता से अरहंतका निरूपण करते हैंः––
जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवज्जियं विमलं।
सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगुंछा य दोसो य।। ३७।।
दस पाणा पज्जती अट्ठसहस्सा य लक्खणा भणिया।
गोखीरसंखधवलं मंसं रूहिरं च सव्वंगे।। ३८।।
एरिसगुणेहिं सव्वं अइसयवंतं सुपरिमलामोयं।
ओरालियं च कायं णायव्वं अरहपुरिसस्स।। ३९।।

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वणव्याधि–दुःख–जरा, आहार–निहार वर्जित, विमळ छे,
अजुगुप्सिता, वणनासिकामळ–श्लेष्म–स्वेद, अदोष छे। ३७।
दस प्राण, षट् पर्याप्ति, अष्ट–सहस्र लक्षण युक्त छे,
सर्वांग गोक्षीर–शंखतुल्य सुधवल मांस रूधिर छे; ३८।
–आवा गुणे सर्वांग अतिशयवंत, परिमल म्हेकती,
औदारिकी काया अहो! अर्हत्पुरुषनी जाणवी। ३९।