बोधपाहुड][१३३
भावार्थः––जैन दीक्षामें कुछ भी परीग्रह नहीं, सर्व संसार का मोह नहीं, जिसमें बाईस
परीषहोंका सहना तथा कषायोंका जीतना पाया जाता हैं और पापारंभ का अभाव होता है।
इसप्रकार दीक्षा अन्यमत में नहीं है।। ४५।।
आगे फिर कहते हैंः–––
धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताइं।
कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४६।।
धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि।
कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४६।।
अर्थः––धन, धान्य, वस्त्र इनका दान, हिरण्य अर्थात् रूपा, सोना आदिक, शय्या,
आसन आदि शब्दसे छत्र, चामरादिक और क्षेत्र आदि कुदानोंसे रहित प्रवज्या कही है।
भावार्थः––अन्यमती बहुत से इसप्रकार प्रवज्या कहते हैंः––––गौ, धन, धान्य, वस्त्र,
सोना, रूपा (चाँदी), शयन, आसन, छत्र, चँवर और भूमि आदि का दान करना प्रवज्या है।
इसका इस गाथा में निषेध किया है–––प्रवज्या तो निर्गं्रथ स्वरूप है, जो धन, धान्य आदि
रख कर दान करे उसके काहे की प्रवज्या? यह तो गृहस्थका कर्म है, गृहस्थके भी इन
वस्तुओंके दान से विशेष पुण्य तो होता नहीं है, क्योंकि पाप बहुत है और पुण्य अल्प है, वह
बहुत पापकार्य गृहस्थको करने में लाभ नहीं है। जिसमें बहुत लाभ हो वही काम करना योग्य
है। दीक्षा तो इन वस्तुओं से रहित है।। ४६।।
आगे फिर कहते हैंः––
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धन–धान्य–पट, कंचन–रजत, आसन–शयन, छत्रादिनां
सर्वे कुदान विहीन छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ४६।