तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४७।।
तृणे कनके समभावा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४७।।
अर्थः––जिसमें शत्रु–मित्र में समभाव है, प्रशंसा–निन्दामें, लाभ–अलाभमें और तृण–
कंचन में समभाव है। इसप्रकार प्रवज्या कही है।
सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४८।।
सर्वत्र गृहितपिंडा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४८।।
अर्थः––उत्तम गेह अर्थात् शोभा सहित राजभवनादि और मध्यगेह अर्थात् जिसमें अपेक्षा
नहीं है। शोभारहित सामान्य लोगोंका घर इनमें तथा दारिद्र–धनवान् इनमें निरपेक्ष अर्थात्
इच्छारहित हैं, सब ही योग्य जगह पर आहार ग्रहण किया जाता है। इसप्रकार प्रवज्या कही
है।
इसप्रकार वांछारहित निर्दोष आहारकी योग्यता हो वहाँ सब ही जगहसे योग्य आहार ले लेते
हैं, इसप्रकार दीक्षा है।। ४८।।
तृण–कंचने समभाव छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ४७।
निर्धन–सधन ने उच्च–मध्यम सदन अनपेक्षितपणे