णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४९।।
निर्ममा निरहंकारा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४९।।
मदरहित है, जिसमें आशा नहीं है, संसारभोग की आशारहित है, जिसमें अराग अर्थात् राग
का अभाव है, संसार–देह–भोगों से प्रीति नहीं है, निर्देषा अर्थात् किसी से द्वेष नहीं है, निर्ममा
अर्थात् किसी से ममत्व भाव नहीं है, निरहंकारा अर्थात् अहंकार रहित है, जो कुछ कर्मका
उदय होता है वही होता है–––इसप्रकार जानने से परद्रव्यमें कर्तृत्वका अहंकार नहीं रहता है
और अपने स्वरूपका ही उसमें साधन है, इसप्रकार प्रवज्या कही है।
भावार्थः––अन्यमती भेष पहिनकर उसी मात्रको दीक्षा मानते हैं वह दीक्षा नहीं है, जैन
आगे फिर कहते हैंः––
णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५०।।
निर्मम, अराग, अद्वेष छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ४९।
निः स्नेह, निर्भय, निर्विकार, अकलुष ने निर्मोह छे,