Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 51 (Bodh Pahud).

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१३६] [अष्टपाहुड
निःस्नेहा निर्लोभा निर्मोहा निर्विकारा निःकलुषा।
निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५०।।

अर्थः
––प्रवज्या कैसी है––निःस्नेहा अर्थात् जिसमें किसीसे स्नेह नहीं, जिसमें परद्रव्यसे
रागादिरूप सच्चिक्कणभाव नहीं है, जिसमें निर्लोभा अर्थात् कुछ परद्रव्य के लेने की वांछा नहीं
है, जिसमें निर्मोहा अर्थात् किसी परद्रव्य से मोह नहीं है, भूलकर भी परद्रव्य में आत्मबुद्धि नहीं
होती है, निर्विकारा अर्थात् बाह्य–अभ्यंतर विकार से रहित है, जिसमें बाह्य शरीर की चेष्टा
तथा वस्त्राभूषणादिकका अंग–उपांग विकार नहीं है, जिसमें अंतरंग काम – क्रोधादिकका
विकार नहीं है। निःकलुषा अर्थात् मलिन भाव रहित हैं। आत्मा को कषाय मलिन करते हैं अतः
कषाय जिसमें नहीं है। निर्भया अर्थात् जिसमें किसी प्रकार का भय नहीं है, अपने स्वरूपको
अविनाशी जाने उसको किसी का भय हो, जिसमें निराशभावा अर्थात् किसी प्रकार के परद्रव्य
की आशा का भाव नहीं है, आशा तो किसी वस्तु की प्राप्ति न हो उसकी लगी रहती है परन्तु
जहाँ परद्रव्य को अपना जाना ही नहीं और अपने स्वरूप की प्राप्ति हो गई तब कुछ प्राप्त
करना शेष न रहा, फिर किसकी आशा हो? प्रवज्या इसप्रकार कही है।

भावार्थः––जैन दीक्षा ऐसी है। अन्यमत में स्व–पर द्रव्यका भेदविज्ञान नहीं है, उनके
इसप्रकार दीक्षा कहाँ से हो।। ५०।।

आगे दीक्षा का बाह्य स्वरूप कहते हैंः–––
जहजायरूवसरिसा अवलंबियभुय णिराउहा संता।
परकियणिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५१।।
यथाजातरूपसद्रशी अवलंबितभुजा निरायुधा शांता।
परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५१।।

अर्थः
–– कैसी है प्रवज्या? यथाजातरूपसदृशी अर्थात् जैसा जन्म होते ही बालकका
नग्नरूप होता है वैसा ही नग्न उसमें है। अवलंबिताभुजा अर्थात् जिसमें भुजा लंबायमान की है,
जिसमें बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग रहना होता है, निरायुध अर्थात् आयुधोंसे रहित है, शांता
अर्थात् जिसमें अंग–उपांग के विकार रहित शांतमुद्रा होती
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जन्म्या प्रमाणे रूप, लंबितभुज, निरायुध, शांत छे,
परकृत निलयमां वास छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ५१।