सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५३।।
सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५३।।
अर्थः––कैसी है प्रवज्या?––––कि जिसके मूढ़भाव, अज्ञानभाव विपरीत हुआ है अर्थात्
दूर हुआ है। अन्यमती आत्मा का स्वरूप सर्वथा एकांतसे अनेकप्रकार भिन्न–भिन्न कहकर वाद
करते हैं, उनके आत्मा के स्वरूप में मूढ़भाव है। जैन मुनियोंके अनेकांतसे सिद्ध किया हुआ
यथार्थ ज्ञान है इसलिये मूढ़भाव नहीं है। जिसमें आठ कर्म और मिथ्यात्वादि प्रणष्ट हो गये हैं,
जैनदीक्षामें अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्वका अभाव है, इसलिये सम्यक्त्व नामक गुण द्वारा
विशुद्ध हैं, निर्मल हैं, सम्यक्त्वसहित दीक्षा में दोष नहीं रहता; इसप्रकार प्रवज्या कहीं है।।
५३।।
भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया।। ५४।।
भावयंति भव्यपुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता।। ५४।।
अर्थः––प्रवज्या जिनमार्ग में छह संहननवाले जीवके होना कहा है, निर्गं्रन्थ स्वरूप है,
सब परिग्रहसे रहित यथाजातस्वरूप है। इसकी भव्यपुरुष ही भावना करते हैं। इसप्रकारकी
प्रवज्या कर्मके क्षयका कारण कही है।
नहीं है कि दृढ़ संहनन वज्रऋषभ आदि हैं उनमें ही दीक्षा हो और असंसृपाटिक संहननमें न
हो, इसप्रकार निर्ग्रंथरूप दीक्षा तो असंप्राप्तासृपाटिका
सम्यक्त्वगुणथी शुद्ध छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ५३।
निर्ग्रंथ दीक्षा छे कही षट् संहननमां जिनवरे;