पव्वज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरसीहिं।। ५५।।
प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः।। ५५।।
अर्थः––जिस प्रवज्या में तिलके तुष मात्रके संग्रह का कारण––ऐसे भावरूप इच्छा
अर्थात् अंतरंग परिग्रह और उस तिलके तुषमात्र बाह्य परिग्रहका संग्रह नहीं है इस प्रकार की
प्रवज्या जिसप्रकार सर्वज्ञदेव ने कही है उसीप्रकार है, अन्यप्रकार प्रवज्या नहीं है ऐसा नियम
जानना चाहिये। श्वेताम्बर आदि कहते हैं कि अपवादमार्ग में वस्त्रादिकका संग्रह साधु को कहा
है वह सर्वज्ञके सूत्र में तो नहीं कहा है। उन्होंने कल्पित सूत्र बनाये हैं उनमें कहा है वह
कालदोष है।। ५५।।
शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र।। ५६।।
–आवी प्रव्रज्या होय छे सर्वज्ञजिनदेवे कही। ५५।
उपसर्ग–परिषह मुनि सहे, निर्जन स्थळे नित्ये रहे,