Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 58-59 (Bodh Pahud).

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बोधपाहुड][१४१
तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य।
सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५८।।
तपोव्रतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च।
शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदशी भणिताः।। ५८।।

अर्थः
––जिनदेव ने प्रवज्या इसप्रकार कही है कि–––तप अर्थात् बाह्य – अभ्यंतर बारह
प्रकार के तप तथा व्रत अर्थात् पाँच महाव्रत और गुण अर्थात् इनके भेदरूप उत्तरगुणोंसे शुद्ध
है। ‘संयम’ अर्थात् इन्द्रिय – मनका निरोध, छहकायके जीवोंकी रक्षा, ‘सम्यक्त्व’ अर्थात्
तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण निश्चय–व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन तथा इनके ‘गुण’ अर्थात् मूलगुणों से
शुद्धा, अतिचार रहित निर्मल है और जो प्रवज्या के गुण कहे उनसे शुद्ध है, भेषमात्र ही नहीं
है; इसप्रकार शुद्ध प्रवज्या कही जाती है। इन गुणोंके बिना प्रवज्या शुद्ध नहीं है।

भावार्थः––तप व्रत सम्यक्त्व इन सहित और जिनमें इनके मूलगुण तथा अतिचारोंका
शोधन होता है इसप्रकार दीक्षा शुद्ध है। अन्यवादी तथा श्वेताम्बर आदि चाहे – जैसे कहते हैं
वह दीक्षा शुद्ध नहीं है।। ५८।।

आगे प्रवज्या के कथन का संकोच करेत हैंः–––
एवं आयत्तणगुणपज्जंत्ता बहुविसुद्ध सम्मत्ते।
णिग्गंथे जिणमग्गे संखेवेणं जहारवादं।। ५९।।
एवं आयतनगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे।
निर्ग्रंथे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम्।। ५९।।
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१ पाठान्तरः ––आयात्तणगुणपव्वज्जंता।
२ संस्कृत सटीक प्रति में ‘आयतन’ इसकी सं० ‘आत्मत्व’ इसप्रकार है।
तपव्रतगुणोथी शुद्ध, संयम–सुद्रगगुणसुविशुद्ध छे,
छे गुणविशुद्ध, –सुनिर्मळा दीक्षा कही आवी जिने। ५८।

संक्षेपमां आयतनथी दीक्षांत भाव अहीं कह्या,
ज्यम शुद्ध सम्यग्दरशयुत निर्ग्रंथ जनपथ वर्णआ। ५९।