Ashtprabhrut (Hindi).

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१४४] [अष्टपाहुड
देखने वाले के शांत भाव होते हैं, ध्यानकी मुद्राका स्वरूप जाना जाता है और वीतरागधर्मसे
अनुराग विशेष होनेसे पुण्यबन्ध होता है, इसलिये इनको भी छहकायके जीवोंका हित करनेवाले
उपचारसे कहते हैं।

जिनमन्दिर वस्तिका प्रतिमा बनाने में तथा पूजा–प्रतिष्ठा करने में आरम्भ होता है,
उसमें कुछ हिंसा भी होती है। ऐसा आरम्भ तो गृहस्थका कार्य है, इसमें गृहस्थको अल्प पाप
कहा, पुण्य बहुत कहा है, क्योंकि गृहस्थके पदमें न्यायकार्य करके न्यायपूर्वक धन उपार्जन
करना, रहनेके लिये मकान बनवाना, विवाहादिक करना और बलपूर्वल आरम्भ कर अहारादिक
स्वयं बनाना तथा खाना इत्यादिक यद्यपि हिंसा होती है तो भी गृहस्थको इसका महापाप नहीं
कहा जाता है। गृहस्थके तो महापाप मिथ्यात्वका सेवन करना, अन्याय, चोरी आदिमें धन
उपार्जन करना, त्रस जीवोंको मारकर मांस खाना और परस्त्री–सेवन करना ये महापाप हैं।

गृहस्थाचार छोड़कर मुनि हो जावे तब गृहस्थके न्यायकार्य भी अन्याय ही हैं। मुनिके भी
आहार आदिकी प्रवृत्तिमें कुछ हिंसा होती है उससे मुनि को हिंसक नहीं कहा जाता है, वैसे
ही गृहस्थके न्यायपूर्वक अपने पदके योग्य आरंभके कार्योंमें अल्प पाप ही कहा जाता है,
इसलिये जिनमंदिर, वस्तिका और पूजा–प्रतिष्ठा के कार्योंमें आरम्भका अल्प पाप है; मोक्षमार्ग
में प्रवर्तने वालोंसे अति अनुराग होता है और उनकी प्रभावना करते हैं, उनको आहारदानादिक
देते हैं और उनका वैयावृत्यादि करते हैं। ये सम्यक्त्वके अंग हैं और महान पूण्य के कारण हैं,
इसलिये गृहस्थको सदा ही करना योग्य है। और गृहस्थ होकर ये कार्य न करे तो ज्ञात होता
है कि इसके धर्म अनुराग विषेश नहीं है।
प्रश्नः–––गृहस्थको जिसके बिना चले नहीं इसप्रकार के कार्य तो करना ही पड़े और
धर्मपद्धति में आरम्भका कार्य करके पाप क्यों मिलावे, सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रौषध आदि
करके पुण्य उपजावे। उसको कहते हैं–––यदि तुम इसप्रकार कहो तो तुम्हारे परिणाम तो इस
जाति के हैं नहीं, केवल बाह्यक्रिया मात्र में ही पुण्य समझते हो। बाह्य में बहु आरम्भी परिग्रही
का मन, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि निरारंभ कार्यों में विशेषरूपसे लगता नहीं है यह
अनुभवगम्य है, तुम्हारे अपने भावोंका अनुभव नहीं है; केवल बाह्य सामायिकादि निरारंभ
कार्योंका भेष धारण कर बैठो तो कुछ विशिष्ट पुण्य नहीं है, शरीरादिक बाह्य वस्तु तो जड़ हैं,
केवल जड़ की क्रियाका फल तो आत्मा को मिलता नहीं है। अपने भाव जितने अंश में
बाह्यक्रिया में लगें उतने अंश में शुभाशुभ फल अपने को लगता है; इसप्रकार विशिष्ट पुण्य तो
भावोंके अनुसार है।