मार्ग
ग्यारह स्थान धर्मके ठिकानेका आश्रय लेते हैं; अज्ञानी जीव इस स्थान पर अन्यथा स्वरूप
स्थापित करके उनसे सुख लेना चाहते हैं, किन्तु यथार्थ के बिना सुख कहाँ? इसलिये आचार्य
दयालु होकर जैसे सर्वज्ञने कहे वैसे ही आयतन आदिका स्वरूप संक्षेपसे यथार्थ कहा है?
इसको बाँचों, पढ़ो, धारण करो और इसकी श्रद्धा करो। इसके अनुसार तद्रूप प्रवृत्ति करो।
इसप्रकार करने से वर्तमानमेह सुखी रहो और आगामी संसारदुःख से छूट कर परमानन्दस्वरूप
मोक्षको प्राप्त करो। इसप्रकार आचार्य का कहने का अभिप्राय है।
अन्यथा स्थापित कर प्रवृत्त करते हैं वे हिंसा रूप हैं और जीवोंके हित करने वाले नहीं हैं। ये
ग्यारह ही स्थान संयमी मुनि और अरहन्त, सिद्ध को ही कहें हैं। ये तो छह कायके जीवोंके
हित करने वाले ही हैं इसलिये पूज्य हैं। यह तो सत्य है, और जहाँ रहते हैं इसप्रकार आकाश
के प्रदेशरूप क्षेत्र तथा पर्वतकी गुफा, वनादिक तथा अकृत्रिम चैत्यालय ये स्वयमेव बनें हुए हैं,
उनको भी प्रयोजन और निमित्त विचार कर उपचारमात्र से छहकाय के जीवों के हित करने
वाले कहें तो विरोध नहीं हैं, क्योंकि ये प्रदेश जड़ हैं, ये बुद्धिपूर्वक किसी का भला बुरा नहीं
करते हैं तथा जड़ को सुख–दुःख आदि फलका अनुभव नहीं है, इसलिये ये भी व्यवहार से
पूज्य हैं, क्योंकि अरहंतादिक जहाँ रहते हैं वे क्षेत्र–निवास आदिक प्रशस्त हैं, इसलिये उन
अरहंतादिके आश्रय से ये क्षेत्रादिक भी पूज्य हैं; परन्तु प्रश्न –गृहस्थ जिनमंदिर बनावे,
वस्तिका, प्रतिमा बनावे और प्रतिष्ठा पूजा करे उसमें तो छहकायके जीवोंकी विराधना होती है,
यह उपदेश और प्रवृत्ति की बाहुल्यता कैसे है?
संकल्प कर वंदना – पूजन करता है तथा उनके रहनेका क्षेत्र तथा ये मुक्त हुए क्षेत्र में तथा
अकृत्रिम चैत्यालय में उनका संकल्प कर वंदना व पूजन करता है। इसमें अनुरागविशेष सूचित
होता है; फिर उनकी मुद्रा, प्रतिमा तदाकार बनावे और उसको मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा कर
स्थापित करे तथा नित्य पूजन करे इसमें अत्यन्त अनुराग सूचित होता है, उस अनुरागसे
विशिष्ट पुण्यबन्ध होता है और उस मन्दिरमें छहकायके जीवोंके हितकी रक्षाका उपदेश होता
है तथा निरन्तर सुनने वाले और धारण करने वाले अहिंसा धर्म की श्रद्धा दृढ़ होती है, तथा
उनकी तदाकार प्रतिमा