– श्रावकले द्रव्यलिंगके पहिले भावलिंग अर्थात् सम्यग्दर्शनादि निर्मलभाव हो तो सच्चा मुनि –
श्रावक होता है, इसलिये भावलिंग ही प्रधान है वही परमार्थ है, इसलिये द्रव्यलिंगको परमार्थ
न जानना, इसप्रकार उपदेश किया है।
वर्तन प्रकट देखने में आता है–––जीव चेतनास्वरूप है और पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और
वर्णरूप जड़ है। इनकी अवस्था से अवस्थान्तररूप होना ऐसे परिणाम को ‘भाव’ कहते हैं।
जीव का स्वभाव – परिणामरूप भाव तो दर्शन–ज्ञान है और पुद्गल कर्मके निमित्त से ज्ञान में
मोह–राग–द्वेष होना ‘विभाव भाव’ हैं। पुद्गल के स्पर्श से स्पर्शान्तर, रससे रसांतर इत्यादि
गुणोंसे गुणांतर होना ‘स्वभावभाव’ है और परमाणुसे स्कंध होना तथा स्कंधसे अन्य स्कंध
होना और जीवके भावके निमित्त से कर्मरूप होना ये ‘विभावभाव’ हैं। इसप्रकार इनके परस्पर
निमित्त–नैमित्तिक भाव होते हैं।
भावरूप न प्रवर्तने का उपदेश है। जीवके पुद्गल कर्मके संयोग से देहादिक द्रव्यका सम्बन्ध है,
–––इस बाह्यरूप को द्रव्य कहते हैं, और ‘भाव’ से द्रव्य की प्रवृत्ति होती है, इसप्रकार द्रव्य
की प्रवृत्ति होती है। इसप्रकार द्रव्य – भाव का स्वरूप जानकर स्वभाव में प्रवर्ते विभाव में न
प्रवर्ते उसके परमानन्द सुख होता है; और विभाव राग – द्वेष – मोहरूप प्रवर्ते, उसके संसार
संबन्धी दुःख होता है।
ऐसा नहीं है। इसप्रकार जीव के ज्ञान–दर्शन तो स्वभाव है और राग–द्वेष– मोह ये स्वभाव
विभाव हैं और पुद्गल के स्पर्शादिक तथा स्कन्धादिक स्वभाव विभाव हैं। उनमें जीव का हित–
अहित भाव प्रधान है, पुद्गलद्रव्य संबन्धी प्रधान नहीं है। यह तो सामान्यरूप से स्वभाव का
स्वरूप है और इसी का विशेष सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र तो जीवका स्वभाव भाव है, इसमें
सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है। इसके बिना सब बाह्य क्रिया मिथ्यादर्शन – ज्ञान –चारित्र हैं ये
विभाव हैं और संसार के कारण हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। २।।